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संताल परगना की विस्मृत मनीषा के अवदानों का मूल्यांकन ---
सारांश
आचार्य पंकज संताल परगना (झारखण्ड) में हिंदी साहित्य और हिंदी कविता की अलख जगाकर सैकड़ों साहित्यकार पैदा करने वाले उन विरले मनीषी व महान विद्वान-साहित्यकारों की उस परमपरा के अग्रणी रहे हैं जिनकी विरासत को यहां के लोगों ने आज तक संजोये रखा है. यूं तो संताल परगना की धरती पर पंकज जी के पहले और उनके बाद भी कई स्वनामधन्य साहित्यकारों ने अपना यत्किंचित योगदान दिया है, परंतु पंकज जी का योगदान इस मायने में सबसे अलग दिखता है कि उन्होंने साहित्य-सृजन को एक रचनात्मक आंदोलन में परिवर्तित किया. उन्होंने अपने गुरूजनों और पूर्ववर्ती विभूतियों से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों की विरासत को न सिर्फ़ संजोया बल्कि उसे संताल परगना के नगर-नगर, गांव-गांव में फैलाकर एक नया इतिहास रचा. संताल परगना के प्राय: सभी परवर्ती लेखक, कवि एवं साहित्यकार बड़ी सहजता और कृतज्ञता के साथ पंकज जी के इस ऋण को स्वीकारते है. आचार्य पंकज ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में, हिन्दी विद्यापीठ देवघर के शिक्षक और शहीद आश्रम छात्रावास देवघर के अधीक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों के साथ भूमिगत विप्लवी की बड़ी भूमिका निभाई और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर समस्त संताल परगना को शिक्षा और साहित्य की लौ से रौशन किया.
विशिष्ट शब्द--
घाटवाली,खैरबनी ईस्टेट , हिन्दी विद्यापीठ देवघर, वैद्यनाथ नगरी,’पंकज-गोष्ठी’
भूमिका
हमारा देश कई अर्थों में अद्भुत और अति विशिष्ट है. पूरे देश में बिखरे हुए अनगिनत महलों एवं किलों के भग्नावशेषों की जीर्ण-शीर्ण अवस्था जहां हमारी सामूहिक स्मृति और मानस में ’राजसत्ता’ के क्षणभंगुर होने के संकेतक हैं, तो दूसरी ओर विपन्न किंतु विद्वान मनीषियों से सम्बन्धित दन्त-कथाओं का विपुल भंडार, ऋषि परम्परा के प्रति हमारी अथाह श्रद्धा का जीवंत प्रमाण भी है. हालांकि कालचक्र के थपेडों के चलते हमारे कई ऋषि-मनीषी-चिन्तक आज के "प्रायोजित"और तथाकथित "वादों" के घेरे में चलने वाली बहसों में भले ही उपेक्षित प्रतीत हों----परन्तु सत्य तो यह है कि जनमानस कि स्मृति का अमिट अंग बनकर वे चिरंतन प्रेरणा-स्रोत बन गये हैं. संताल परगना के विभिन्न पक्षो के एक सामान्य अध्येता होने के नाते मैं यहां के मनीषियों की कीर्ति कथाओं से अचंभित न होकर, बल्कि उनसे संबंधित दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत मानकर संताल परगना की कुछ प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास करुंगा. भारतीय इतिहासकारों ने अभी तक दन्तकथाओं और स्मृतियों(मेमोरी) को यथोचित महत्व न देकर, मेरी दृष्टि में इतिहास के इस अतिशय महत्वपूर्ण स्रोत की अनदेखी की है, जिसके चलते हम आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों के माईक्रो इतिहास का सही-सही पुनर्गठन नहीं कर पा रहे हैं. देश भर में अस्मिता या आईडेंटीटी के सवाल आज जिस तरह से खडे हो रहे हैं उसको सही तरीके से समझने के लिये भी इस तरह के ऐतिहासिक अध्ययनों की जरूरत है.
“संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।"----नित्यानन्द नामक गोड्डा जिला निवासी एक स्कूल टीचर के हाल के एक लेख की उक्त पंक्तियों मे अभिव्यक्त असंतोष को एक व्यापक बौद्धिक जनाधार के समर्थन की झलक भी हमें दिखाई देती है , जब हम इतिहासविद् तथा एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के इतिहास विभागाध्यक्ष डॉ.सुरेन्द्र झा के शब्दों पर गौर करते हैं----" यह अंग्रेजों की उपनिवेशवादी और शोषक नीति के निरंतर प्रभाव का परिणाम है. पंकज जी समेत संताल परगना के सभी रत्नों की उपेक्षा इसी की परिणति है. संताल परगना की चुनौतियाँ आज भी वही है जो सौ-डेढ़ सौ साल पहले थी. यहां के निवासियों में आत्म-गौरव का बोध और उसका प्रसार ही इस स्थिति से निजात का एकमात्र मार्ग है. पंकज जी ने भी संताल परगना को पहचान की नयी दिशा देकर इसी कार्य की शुरुआत की थी. पंकज जी के कार्यों को आगे बढाकर हम न सिर्फ उन्हें सच्ची श्रधांजलि देंगे बल्कि संताल परगना को उसका हक़ भी दिलाएंगे."
संताल परगना के निवासियों के मन में सुलग रहे आक्रोश के पीछे उसकी उपेक्षा ही मूल कारण के रूप में सामने आती है. संताल परगना, शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में तो यह उपेक्षा-भाव असहनीय वेदना का रूप ले चुका है. हिन्दी विद्यापीठ देवघर जो कभी स्वाधीनता सेनानियों और हिन्दी साधकों का अखिल भारतीय स्तर का गढ़ हुआ करता था, के निर्माता महामना पं० शिवराम झा के अवदानों का उल्लेख किस इतिहासकार ने किया? ठीक इसी तरह संताल परगना के हिन्दी साहित्याकाश के जाज्वल्यमान शाश्वत नक्षत्रों — परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्रयी के अवदानों का सम्यक् अध्ययन कितने तथाकथित विद्वानों ने किया? संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति आचार्य पंकज ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ही नहीं, इतिहास्कारों ने भी उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत तथा इतिहास के मठाधीशों ने कभी नहीं ली.
मज्कूर आलम ने ४ जुलाई २००५ में प्रभात खबर मे आचार्य पंकज के बारे में कुछ इस तरह लिखा--"बालक ज्योतींद्र से आचार्य पंकज तक की यात्रा, आंदोलनकारी पंकज की यात्रा, बताती है समय की गति को. सृष्टि के नियम को. उन्हें अपने अनुकूल करने की क्षमता को. जड़ से चेतन बनने की कथा को. यह भी बताती है कि कैसे दृढ़ इच्छाशक्ति विकलांग को भी शेरपा बना सकती है. कैसे चार आने के लिए नगरपालिका का झाड़ू लगाने को तैयार ज्योतींद्र, आचार्य पंकज बन सकता है! कैसे अपनी बुभुझा को दबाकर व घाटवाली को लात मारकर वतन पर मर मिटने वाला सिपाही बन सकता है! इतना ही नहीं हिंदी साहित्य में उपेक्षित संताल परगना का नाम इतिहास में दर्ज करवा सकता है! यह सवाल किसी के जेहन को मथ सकता है कि क्या थे पंकज? ’महामानव’! नहीं, वे भी हाड़-मांस के पुतले थे. साधारण सी जिंदगी जीने वाले. उनकी सादगी की कहानियां संताल-परगना के गांव-गांव में बिखरी पडी मिल जायेंगी, जिन्हें पिरोकर माला बनायी जा सकती है. वह भी भारतीय इतिहास के लिये अनमोल धरोहर होगी. आजादी की लडाई में अपने अद्भुत योगदान के लिये याद किये जाने वाले पंकज का जन्मदिन भी अविस्मरणीय दिन है, हूल-क्रान्ति दिवस अर्थात ३० जून को. वैसे भी संताल परगना के इतिहास विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी की लडाई में इनके अवदानों की उचित समीक्षा नहीं हुई है. अंग्रेजपरस्त लेखकों ने इस क्षेत्र के आंदोलनकारियों का इतिहास लिखते वक्त जो कंजूसी की थी, उसी को बाद के लेखकों ने भी आगे बढा़या, जिसके चलते यहां की कई विभूतियों, अलामत अली, सलामत अली, शेख हारो, चांद, भैरव जैसे कई आजादी के परवाने यहां तक की सिदो-कान्हो की भी भूमिका की चर्चा इतिहास में ईमानदारी से नहीं हुई है. यह कसक न सिर्फ़ यहां के इतिहासकारों को, बल्कि हर आदमी में देखी जा सकती है.जो अंग्रेजपरस्त लेखकों ने लिख दिया उसे ही इतिहास मान लिया गया. यहां के कई अनछुए पहलुओं की ऐतिहासिक सत्यता की जांच ही नहीं की गयी. अगर इन तथ्यों का निष्पक्षता से मूल्यांकन किया जाता, तो राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर कई अद्भुत शख्सियतें यहां से उभर कर सामने आतीं. उनमें से निश्चित रूप से एक नाम और उभरता. वह नाम होता आचार्य ज्योतींद्र झा ’पंकज’ का."
शोध-विधि
तत्कालीन संताल परगना से संबंधित अनछुए पहलुओं को उजागर करने के लिये हमने विगत दो दशकों मे पंकज जी के समकालीन कई महानुभाओं के निजी संस्मरण सुने और तथ्य एकत्रित किये हैं.इसके अतिरिक्त पंकज जी से संबंधित दर्जनों किंवदंतियां , जो आज भी संताल परगना के गांवों में बिखरी हुई हैं, का भी सम्यक अध्ययन किया है.पंकज जी के छात्रों, पंकज गोष्ठी के सदस्यों, पंकज जी के ग्रामीणों और रिस्तेदारों तथा उनसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित लेखकों, तथा पंकज-भवन छात्रावास, दुमका, के पुराने छात्रो के संस्मरणों को भी इस लेख का आधार बनाया गया है. इनके अतिरिक्त पंकज जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित लेखों को इस निबन्ध का मुख्य स्रोत बनाया गया है.
मुख्य विषय
संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज का जन्म हुआ था. पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था. भयंकर विपन्नता तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया. परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया. लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे. उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था. इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये.
पंकज जी ने 1938 में ही देवघर के हिंदी विद्यापीठ में अध्यापन का कार्य शुरू कर दिया और अपनी प्रकांड विद्वता के बल पर तत्कालीन हिंदी जगत के धुरंधरों का ध्यान अपनी ओर खींचा. 1942 के भारत-छोड़ो आन्दोलन की कमान एक शिक्षक की हैसियत से सम्हाली. 1954 में वे संताल परगना महाविद्यालय, दुमका, के संस्थापक शिक्षक एवं हिंदी विभाग के अध्यक्ष बन गए. 1955 तक आचार्य पंकज की ख्याति संताल परगना की सीमा से निकलकर उत्तर भारत और पूर्वी भारत के विद्वानों और साहित्याकारों तक फैल चुकी थी. उनके आभा मंडल से वशीभूत संताल परगना के साहित्यकारों ने 1955 में ही ’पंकज-गोष्ठी’ जैसी ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था का गठन किया जो 1975 तक संताल परगना की साहित्यिक चेतना का पर्याय बनी रही. पंकज जी इस संस्था के सभापति थे. 1955 से 1975 तक पंकज गोष्ठी संपूर्ण संताल परगना का अकेला और सबसे बड़ा साहित्यिक आन्दोलन था. सच तो यह है कि उस दौर में वहां पंकज गोष्ठी की मान्यता के बिना कोई साहित्यकार ही नहीं कहलाता था. पंकज गोष्ठी द्वारा प्रकाशित कविता संकलन का नाम था “अर्पणा" तथा एकांकी संकलन का नाम था “साहित्यकार”. 1958 में उनका प्रथम काव्य-संग्रह “स्नेह-दीप” के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ ने लिखी. 1962 में उनका दूसरा कविता संग्रह "उद्गार" के नाम से छपा जिसकी भूमिका पं. जनार्दन मिश्र ’परमेश’ ने लिखी. पंकज जी की रचनाएं बड़ी संख्या में दैनिक विश्वमित्र, श्रृंगार, बिहार बंधु, प्रकाश, साहित्य-संदेश व अवन्तिका में प्रकाशित होती थी. उन्होंने निबन्ध, आलोचना, एकांकी, प्रहसन और कविता पर समान रूप से लेखनी चलायी, परन्तु अमरत्व प्राप्त हुआ उन्हें कवि और विद्वान के रूप में. उनकी प्रकाशित पुस्तकों में स्नेह-दीप, उद्गार, निबन्ध-सार प्रमुख है. समीक्षात्मक लेखों में सूर और तुलसी पर लिखे गए उनके लेखों को काफी महत्व्पूर्ण माना जाता है. परन्तु भक्ति-कालीन साहित्य और रवीन्द्र-साहित्य के वे प्रकांड विद्वान माने जाते थे. रवीन्द्र-साहित्य के अध्येता हंस कुमार तिवारी उन्हें इस क्षेत्र के चलते-फिरते संस्थान की उपाधि देते थे. लक्ष्मी नारायण “सुधांशु”, जनार्दन मिश्र “परमेश”, बुद्धिनाथ झा “कैरव” के समकालीन इस महान विभूति–प्रोफ़ेसर ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज’ की विद्वता, रचनाधर्मिता एवं क्रांतिकारिता से तत्कालीन महत्त्वपूर्ण हिंदी रचनाकार जैसे–रामधारी सिंह” दिनकर”, द्विजेन्द्र नाथ झा “द्विज”, हंस कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन “पन्त’, जानकी वल्लभ शास्त्री,व नलिन विलोचन शर्मा आदि भली-भांति परिचित थे. आत्मप्रचार से कोसो दूर रहने वाले “पंकज”जी को भले आज के हिंदी जगत ने भूला सा दिया है, परन्तु 58 साल कि अल्पायु में ही 17 सितम्बर 1977 को दिवंगत इस आचार्य कवि को मृत्य के 32 वर्षो बाद भी संताल परगना के साहित्यकारों ने ही नहीं बल्कि लाखों लोगो ने अपनी स्मृति में आज भी महान विभूति के रूप में जिन्दा रखा है. संताल परगना का ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं है जहाँ “पंकज” जी से सम्बंधित किम्वदंतियां न प्रचलित हो.और यही तथ्य इतिहास्कारों को भी आकर्षित करने के लिये पर्याप्त है.
पंकज के व्यक्तित्व एवं साहित्य की समीक्षा
पंकज जी के जीवन-वृत्त एवं उनाकी भूमिका के मूल्यंकन हेतु हम उनपर लिखे गये लेखों को ही उद्धृत करेंगे. सबसे पहले हम उनके एक शिष्य एवं संताल परगना के ख्यातिलब्ध दिवंगत पत्रकार मधुसूदन मधु के कथन पर गौर करें--"30 जून 1919 को जन्में व 17 सितम्बर 1977 को देह्त्याग करने वाले पंकज ने 58 वर्षों के अपने छोटे जीवन काल में आज के झारखंड व तत्कालीन बिहार ही नहीं बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर, मेघालय समेत पूर्वोत्तर के बड़े हिस्से व दक्षिण भारत के स्वाधीनता सेनानियों व हिंदीसेवियों को अपनी विद्वता व निरंतर धधकने वाली राष्ट्रीयता से अनुप्राणित किया था. हिन्दी विद्यापीठ के युवा सेनापतियों में पंकज का नाम विशिष्ठ है.---.पंकज जी वैसे विरले व्यक्तियों में से एक हैं, जो एक साथ सर्जक व समीक्षक दोनों हैं. कवि, एकांकीकार व गद्य लेखक के रूप में इन्होंने जितनी ख्याति प्राप्त की उतनी ही ख्याति एक आचार्य समीक्षक के रूप में भी प्राप्त की. मध्यकालीन संत साहित्य व बंगला साहित्य, विशेषकर रवींद्र साहित्य के तो ये अपने युग के सर्वाधिक स्वीकृत अध्येता थे. काव्य-शास्त्र व भक्ति साहित्य इनके सर्वाधिक प्रिय विषय थे. पंकज के अवदानों की चर्चा के क्रम में ’पंकज-गोष्ठी’ का उल्लेख किये बिना कोई भी प्रयास अधूरा ही कहा जायेगा. जिस तरह पंकज ने अपने छात्रों को विप्लवी, स्वाधीनता सेनानी, शिक्षक व पत्रकार के रूप में गढ़ा, उसी प्रकार उनके अंदर साहित्य का भी बीजांकुरण किया. साहित्य के विभिन्न वादों से परे रहकर उन्होंने स्वाधीनता के बाद संताल परगना में साहित्य सर्जना का एक आंदोलन खड़ा किया. ’पंकज-गोष्ठी’ के नाम से दुमका के साहित्यकारों ने पंकज को केंद्र में रखकर एक साहित्यिक संस्था खड़ी की, जो संताल परगना की सर्वप्रमुख साहित्यिक संस्था बन गयी. इस संस्था ने न जाने कितने लेखकों व कवियों को पैदा किया. कहा जाता सकता है कि 1955 से लेकर 1975 तक संताल परगना के साहित्य जगत में ’पंकज-गोष्ठी’ सर्वमान्य व सर्वाधिक स्वीकृत संस्था बनी रही. अगर यह कहें कि ’पंकज गोष्ठी’ ने संताल परगना के लिए कदाचित वही काम किया जो कभी ’सरस्वती” पत्रिका ने बनारस व उत्तर भारत में हिंदी साहित्य के विकास में किया था तो अनुचित नहीं होगा."
ठीक इसी प्रकार से पंकज जी के एक अन्य शिष्य तथा एस.के.युनीवर्सीटी, दुमका, के सेवानिवृत्त शिक्षक प्रोफ़ेसर सत्यधन मिश्र ने भी पंकज जी के बारे मे लिखा---"आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जीवन-काल काफी छोटा रहा, परन्तु विद्वानों व आमजनों को उन्होनें अपने छोटे से जीवन-काल में ही चामत्कारिक रूप से प्रभावित किया. मात्र 19 वर्ष की अवस्था में, 1938 में वे हिन्दी विद्यापीठ जैसे उच्च-कोटि के विद्या मंदिर में शिक्षक भी बन गए. पंकज जी ने हिन्दी विद्यापीठ की मूल आत्मा को भी आत्मसात कर लिया था. वे दिन में अगर एक समर्पित शिक्षक थे तो रात में क्रांतिकारी नौजवानों के सेनापति. साहित्यिक मंच पर वे एक सुधी साहित्यकार थे तो आम लोगों के बीच सुख-दुख के साथी. इसलिए घोर कष्ट झेल कर भी उन्होंने न सिर्फ़ स्वयं को शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित किया, बल्कि सैकड़ों युवकों को निजी तौर पर शिक्षा हेतु प्रोत्साहित भी किया. विपन्नत्ता से जूझते हुए शिक्षा प्राप्त करते रहने की इनकी अदम्य इच्छा-शक्ति से संबंधित किंवदंतियां आज भी इस क्षेत्र के गांव-गांव में बिखरी हुई है. चार आने की नौकरी के लिए एक बार ये म्युनिसपैलिटी में झाड़ू लगाने का काम ढूंढने गए थे. कैसा था इनका जीवटपन! काम को कभी छोटा नहीं समझना और विद्यार्जन करना उनका मुख्य एजेंडा था. अखबार बेचकर, लोगो के बच्चों को पढ़ाकर, उफनती हुई अजय नदी को तैरकर पार करके रोज बामनगामा में नौकरी करके, तथा दिन में एक बार भोजन कर गुजारा करके भी इन्होंने विद्या हासिल की और अपनी विद्वता, स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी भूमिका तथा साहित्यिक प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत किया. हिन्दी विद्यापीठ देवघर, बामनगामा हाई स्कूल सारठ, मधुपुर हाई स्कूल, पुन:हिन्दी विद्यापीठ देवघर और अंतत: संताल परगना महाविद्यालय दुमका के संस्थापक हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में ये आजीवन शिक्षा जगत की सेवा करते रहे.---- पंकज जी के विभिन्न रूपों से प्रेरणा, विभिन्न वर्गों के हजारों – लाखों लोगों ने ली और वे जनश्रुति के नायक बन गये. जब लोग इन्हें बोलते हुए सुनते थे तो विस्मृत और सम्मोहित होकर सुनते रह जाते थे.17 सितम्बर, 1977 में जब इनका अकस्मात निधन हो गया तो सम्पूर्ण संताल परगना में शोक की लहर दौड़ गयी. संताल परगना के उन चुनिंदा लेखकों में से वह एक हैं जिनके कारण आज संताल परगना का दुमका व देवघर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद व बनारस की तरह विभिन्न प्रयोगों का गढ़ बनता जा रहा हैं. ’मानुष सत्त’ को चरितार्थ करते हुए इस अंचल को जो दिव्य-दृष्टि पंकज ने दी है वह आने वाले कल को भी प्रेरित करती रहेगी."
प्रगति वार्ता नामक लघु-साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक डॉ. रामजन्म मिश्र ने भी हाल के एक साक्षात्कार में पंकज जी के बारे में कहा है--- "पंकज जी असाधारण रूप से आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे इतने सरल और साधारण थे कि असाधारण बन गए थे. अपनी छोटी सी जिंदगी में भी उन्होंने जो काम कर दिए वे भी असाधारण ही सिद्ध हुए.विद्यार्थी जीवन में ही वे गाँधी जी के संपर्क में आये और जीवन भर के लिए गाँधी के मूल्यों को आत्मसात कर लिया."
पंकज जी के अवदानों की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध विद्वान और पत्रकार तथ पंकज जी के एक अन्य अनुयायी स्वर्गीय डोमन साहू "समीर"ने भी लिखा साहित्यिक गतिविधियों में आपकी संलग्नता का एक जीता-जागता उदाहरण दुमका में संस्थापित ’पंकज-गोष्ठी’ रहा है. जिसके तत्वावधान में नियमित रूप से साहित्य-चर्चा हुआ करती थी. यहीं नहीं, वहां के ’महेश नारायण साहित्य शोध-संस्थान’ ने आपको ’आचार्य’ की उपाधि से सम्मानित भी किया था. कहा जाएं कि हिन्दी के इस उपेक्षित पूर्वांचल में ’पंकज’ जी ने जो ’स्नेह-दीप’ जलाया था उसकी शिखा अधिकाधिक दीप-युक्त होती गयी है जो एक शुभ संकेत है."
पंकज जी की कव्य-यात्रा का मूल्यांकन करते हुए एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. ताराचरण खवाडे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है---"मैं समदरशी देता जग को, कर्मों का अमर व विषफल के उद्घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक ओर छायावादी प्रवृत्तियों की सुगन्ध है, तो दूसरी ओर प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास.---कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण. पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है."
पंकज जी की कविताओ की गेयात्मकता को आधार मानते हुए एक अन्य प्रतिष्टित कवि-लेखक व एस. के. विश्वविद्यालय, दुमका, के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. राम वरण चौघरी अपने लेख"गीत एवं नवगीत के स्पर्श-बिन्दु के कवि ’पंकज’" मे कहते हैं कि----"पंकज जी के गीत ही नहीं, इनकी कविताएं — सभी की सभी — छंदों के अनुशासन में बंधी हैं. गीत यदि बिंब है तो संगीत इसका प्रकाश है, रिफ्लेक्शन है, प्रतिबिंब है. गीत का आधार शब्द है और संगीत का आधार नाद है. संगीत गीत की परिणति है. जिस गीत के भीतर संगीत नहीं है वह आकाश का वैसा सूखा बादल है, जिसके भीतर पानी नहीं होता, जो बरसता नहीं है, धरती को सराबोर नहीं करता है. पंकज जी के गीतों में सहज संगीत है, इन गीतों का शिल्प इतना सुघर है कि कोई गायक इन्हें तुरत गा सकता है."
पंकज जी की अक्षय कीर्ति--कथा
पंकज जी किस तरह से एक तरफ़ लोगों की स्मृति में बस गये हैं तो दूसरी तरफ़ दन्त-कथाओं में भी समाते चले जा रहे हैं--इसकी भी झलक हमें निम्नलिखित उद्धरणों में मिलती है. “1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ. दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने. नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ. यह भी एक इतिहास है. पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत्समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी. टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटी शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है. लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे. है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है."---नित्यानन्द
“ एक और रोमांचक घटना, जिसका चश्मदीद गवाह इस लेख का लेखक भी है, को हिन्दी जगत के सामने लाना चाहता हूं.बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा. दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे. संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे. कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत्समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना. संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला. इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की. यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि संताल परगना बंगाल से सटा हुआ है और बंगला यहां के बड़े क्षेत्र में बोली जाती है. इसलिये बंगला साहित्य के प्रति यहां के निवासियों में अभिरूचि जन्मजात है. चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, बामा खेपा, पगला बाबा, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर तथा शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय समेत सैकड़ों महानुभावों को इस क्षेत्र के लोग उसी तरह से अपना मानते है जैसे बंगाल के लोग. यहां के महान भक्त-कवि भवप्रीतानंद ओझा की सारी रचनाएं बंगला में ही है. अत: यहां के विद्वत्समुदाय ने तिवारी जी पर रवीन्द्र-साहित्य से संबंधित प्रश्नों की बौछार की थी, जिनका यथासंभव उत्तर प्रेम और आदर के साथ तिवारी जी ने दिया था. इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की. पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत्समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे. पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य के उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही हैं. ---नित्यानन्द
नित्यानन्द की ही तरह से पंकज जी के एक अन्य शिष्य एवं निकटवर्ती सारठ के निवासी भूजेन्द्र आरत, जो ख्यातिलब्ध व यशस्वी उपन्यासकार भी हैं, ने अपने किशोर मन पर अंकित पंकज जी की छाप का सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है-----"30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली के प्रार्थना सभागार से निकलते समय कर दी गई थी. इससे सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौड़ गई. संताल परगना का छोटा-सा गाँव सारठ वैचारिक रुप से प्रखर गाँधीवादी तथा राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा ताल्लुक रखने वाला गाँव के रूप में चर्चित था. इस घटना का सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा. सारठ क्षेत्र के ग्रामीण शोकाकुल हो उठे. 31 जनवरी, 1948 को राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह विद्यालय, बमनगावाँ के प्रांगण से छात्रों, शिक्षकों, इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ हजारों ग्रामीणों ने गमगीन माहौल में बापू की शवयात्रा निकाली थी, जो अजय नदी के तट तक पहुंचीं. अजय नदी के पूर्वी तट पर बसे सारठ गाँव के अनगिनत लोग श्मसान में एकत्रित होकर बापू की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे. मैं उस समय करीब 8-9 वर्ष का बालक था, हजारों की भीड़ देखकर, कौतुहलवश वहाँ पहुंच गया. उसी समय भीड़ में से एक गंभीर आवाज गूंजी कि पूज्य बापू के सम्मान में ’पंकज’ जी अपनी कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे. इसके बाद भीड़ से निकलकर धोती और खालता (कुर्ता) धारी एक तेजस्वी व्यक्ति ने अपनी भावपूर्ण कविता के माध्यम से पूज्य बापू को जब श्रद्धांजलि अर्पित की तो हजारों की भीड़ में उपस्थित लोगों की आंखें गीली हो गई. हजारों लोग सुबकने लगे। मुझे इतने सारे लोगों को रोते-कलपते देखकर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो गया है जो एक साथ इतने सारे लोग रो रहे हैं! कैसा अद्भुत था पंकज जी द्वारा अर्पित उस काव्य श्रद्धांजलि का प्रभाव ! उसी समय पहली बार मेरे बाल-मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर पंकज जी का नाम अंकित हो गया.” आगे वे पंकज जी के कई अन्तरंग पक्षों का रेखाचित्र खींचते हुए जन-सामान्य पर पंकज जी के व्यक्तित्व और विद्वता को दर्शाते हुए लिखते हैं----" दुमका में उन दिनों प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ’रामायण यज्ञ’ हुआ करता था. यह यज्ञ सप्ताह भर चला करता था. इसमें भारत के कोने-कोने से रामायण के प्रकांड पंडित एवं विद्वान अध्येताओं को यज्ञ समिति द्वारा आमंत्रित किया जाता था. यज्ञ स्थल जिला स्कूल के सामने यज्ञ मैदान हुआ करता था. यज्ञ स्थल पर सायंकाल में प्रवचन का कार्यक्रम होता था. विन्दु जी महाराज, करपात्री जी महाराज, शंकराचार्य जी एवं अन्य ख्यातिलब्ध विद्वान यहां प्रवचन किया करते थे. एक दिन में यहां केवल एक रामायण के अध्येता का प्रवचन संभव हो पाता था. इस कार्यक्रम में जहां देश के कोने-कोने से प्रकांड रामायणी अध्येताओं का प्रवचन होता था वहीं सप्ताह की एक संध्या पंकज जी के प्रवचन के लिये सुरक्षित रहती थी. ऐसे थे हमारे पंकज जी और उनका प्रवचन! हम छात्रों और दुमका वासियों के लिये तो सचमुच यह गौरव की बात थी कि इतने उद्भट विद्वान हमारे अपने पंकज जी थे.“-----भूजेन्द्र आरत
“पंकज जी की सम्मोहन कला का एक और संदर्भ. 1964 की बात है. दुर्गापूजा की छुट्टियों के बाद सारठ अस्पताल के डॉ० साहिब के घर हिन्दी के सुविख्यात विद्वान डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव अपने परिवार के साथ आये थे. डॉ० साहिब के वे आत्मीय परिजन थे. डॉ० साहिब ने मुझसे कहा — डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव जी आये है, कोई कार्यक्रम का आयोजन करवा दें . फिर दो-तीन दिनों के बाद तुलसी जयन्ती का आयोजन सारठ मध्य विद्यालय के बरामदे पर किया गया. डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की बड़ी ख्याति थी. वे राजेन्द्र कॉलेज, छपरा, में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे. उन्होंने देश-विदेश का भ्रमण किया था. आयोजन से पूर्व श्रद्धेय पंकज जी दुमका से अपने गांव छुट्टियों में आये थे. मैने तुलसी जयन्ती के बावत उनसे बात की. वे बैठक में भाग लेने के लिये राजी हो गये. नियत तिथि को अपराह्न तुलसी जयन्ती का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ. मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने देश-विदेश में प्रचलित रामकथा एवं रामायण के प्रसंगों की विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की और अपने अगाध ज्ञान का परिचय दिया. अंत में बैठक की अध्यक्षता कर रहे पंकज जी ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें उन्होंने डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की मुक्त- कंठ से प्रशंसा करते हुए उन्हें रामकथा का अधिकारी विद्वान बताया . उनकी विद्वता को सादर रेखांकित करने के बाद पंकज जी ने अपना वक्तव्य शुरू किया. अपने भाषण में पंकज जी ने रामचरित मानस द्वारा समाज में समन्वय की विराट चेष्टा का आधार फलक रखा और तुलसी को सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित करते हुए उनकी कई चौपाईयों को उद्धृत किया और अपनी मान्यता की संपुष्टि हेतु विस्तृत भाषण दिया तथा तुलसी के संदेशों को उपस्थित श्रोताओं के समक्ष अपनी अनूठी शैली में रखा। हम सभी मंत्रमुग्ध होकर पंकज जी का सरस, सारगर्भित और गूढ़ संभाषण सुन रहे थे. ऐसे लग रहा था कि पंकज जी अपनी कक्षा में थे और उपस्थित समूह उनके व्याख्यान को सुध-बुध खोकर सुन रहा था. उनके संभाषण की समाप्ति के बाद पुन: डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव उठ खड़े हुए और पंकज जी के द्वारा व्यक्त किये गये विचारों तथा उनकी वक्तृत्व कला की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे. डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने पंकज जी को को मौलिक चिंतक, उद्भट विद्वान और महान अध्येता घोषित किया तथा उन्हें रामचरित मानस का गूढ और अधिकारी व्यख्याकार भी कहा. हम सब के लिये यह गर्व की बात थी कि हम सब उस क्षण के साक्षी बन रहे थे जब दो उद्भट विद्वान एक-दूसरे की विद्वता पर मुग्ध थे और एक दूसरे के कायल भी. पंकज जी ने हर बार की तरह इस बार भी अपनी विद्वता से हम संताल परगना वासियों का सिर गर्वोन्नत्त कर दिया था.“----भूजेन्द्र आरत
अपने लेख के अंत में आरत जी पंकज जी का महत्व यूं दर्शाते हैं-----"अंत में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन की चर्चा करना चाहता हूं. 13 फरवरी 1965 को दुमका में यह अधिवेशन आयोजित किया गया था. समूचे बिहार से ख्यातिलब्ध लेखकों, कवियों और समीक्षकों का आगमन दुमका में हुआ. संताल परगना हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन अध्यक्ष पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ जी थे. संताल परगना जिले की ओर से तत्कालीन उपायुक्त श्री रासबिहारी लाल, जो स्वयं चर्चित नाटककार एवं साहित्यकार थे, इस सम्मेलन की स्वागत-समिति के अध्यक्ष थे. साहित्यिक अभिरूचि के प्रशासनिक पदाधिकारी होने की वजह से साहित्य जगत में भी उनका बड़ा सम्मान था. स्वागताध्यक्ष के रूप में श्री रास बिहारी लाल जी ने अपने स्वागत भाषण में सर्वप्रथम पं० शुद्धदेव झा ’उत्पल’ जी एवं आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी का ही नामोल्लेख किया था. निश्चय ही यह बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि जिन साहित्यिक लेखकों और कवियों ने इस समागम में भाग लिया था उनमें से सभी स्थापित एवं ख्यातिलब्ध थे. राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, हंस कुमार तिवारी, गोवर्धन सदय, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, नागार्जुन, बुद्धिनाथ झा ’कैरव’, प्रफुल्ल चन्द्र पटनायक, उमाशंकर, रंजन सूरीदेव, दुर्गा प्रसाद खवाड़े, श्याम सुंदर घोष, डोमन साहु ’समीर’, ’ज्योत्सना’ के संपादक शिवेन्द्र नारायण एवं अन्य अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार वहां उपस्थित थे. उसमें मैं भी एक अदना-सा व्यक्ति शामिल था. दूसरे दिन एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया जिसमें हमारे पंकज जी भी प्रमुख कवि के रूप में शामिल थे. बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इस अधिवेशन में अन्य बड़े विद्वानों और साहित्यकारों की तरह पंकज जी भी बड़े विद्वान के रूप में आकर्षण के एक प्रमुख केंद्र थे."
पंकज जी से संबंधित दन्त कथाएं और किंवदंतियां
“शारीरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है. 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया. उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी. गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे. चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ. फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं. संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन. पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया. छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला. हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला. खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है. क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है? पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया. आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है. युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे.“---नित्यानन्द
“कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे. बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे. वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे. कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था. क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी. “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही. ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है. “------- नित्यानन्द
“पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था. दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे. निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है.1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढाते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते हैं. तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते हैं. रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है. पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते हैं. वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है. पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है---रात फिर उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं है. कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने पंकज जी को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था. सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?"--- नित्यानन्द
“1954 में पंकज जी दुमका आ जाते है. खूंटा बांध के पीछे की एक कोठी पंकज जी को पसंद आ गई. लोगों का मानना था कि वहां भूत रहते थे. कहा तो यहां तक जाता था कि भूतों के डर से अंग्रेजी फौज भी वहां से भागकर चली गयी थी. लेकिन धुन के धनी पंकज जी को भला भूतों से क्या डर था. पहले भी तो वे भूतों के साथ भागलपुर में रह ही चुके थे. अत: पंकज जी ने उस भुताहा कोठी को ही अपना आवास बना लिया. लोगों का कहना हैं कि भूत ने पंकज जी को परेशान करना शुरू कर दिया. कभी खून, तो कभी हड्डियों को बिखेरकर इनकों डराने की कोशिश की. भूतों के इस उत्पात को पंकज जी ने चुनौती के रूप में लिया और आंगन में खड़े अनार का पेड़, जिसपर भूत का बसेरा माना जाता था को कटवाने का निश्चय कर लिया. भूत परेशान हो गया और रात में कातर होकर पंकज जी के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि मेरा बसेरा मत उजाड़ो! पंकज जी ने भी कहा कि मुझे तंग करना छोड़ दो! दोनों में समझौता हुआ कि जबतक अन्यत्र कोई अच्छी जगह नहीं मिल जाती, पंकज जी वहीं रहेंगे. जगह मिलते ही कोठी छोड़ देंगे. तबतक उन्हें तंग नहीं किया जाएगा. बदले में पंकज जी को भी अनार का पेड़ नहीं काटने का आश्वासन देना पड़ा. और इस तरह पंकज जी और भूत मित्र हो गये, एक-दूसरे के सहवासी हो गये. पंकज जी ने भूत के कार्यों में खलल नहीं डाला और भूत ने पंकज जी को अनजानी जगह में एक बार फिर पांव पसारने में मदद की. पंकज जी की भूत के साथ मित्रता की ये दो कहानियां भी जमाने के लिये उदाहरण बन गयीं. लोगों ने पढा-सुना था कि लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास को भूत ने सफलता दिलाई थी, यहां भी लोगों ने जाना सुना कि पंकज जी दूसरे लोकनायक थे, जिनकी बहुविध सफलता में भूतों की भी थोड़ी भूमिका थी.“-----नित्यानन्द
निष्कर्ष
पंकज जी के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित हैं कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार बसा हुआ है. इन्हीं कथानकों ने पंकज जी की अक्षय कीर्ति को “ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम-रंग” की तर्ज पर अधिकाधिक ’उज्वल’ बना दिया है. इसलिये पंकज जी को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं. उनके तटस्थ और सम्यक मूल्यांकन हेतु सम्पूर्णता और समग्रता में ही पंकज जी के अवदानों की समीक्षा होनी चाहिये. इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां प्रति उप-कुलपति डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद् पंकज जी को महामानव मान लेते है. एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक पंकज जी को महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता. ऐसा क्यों है?
ठीक इसी तरह आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 32वीं पुण्य-तिथि की पूर्व-संध्या पर नयी दिल्ली में 16 सितम्बर 2009 को ’पंकज-स्मृति संध्या सह काव्य गोष्ठी’ का भव्य आयोजन किया गया. इस अवसर पर प्रसिद्ध गीतकार कुंवर बेचैन ने गीतकार ’पंकज’ को काव्य-तर्पन करते हुए अपनी श्रद्धांजलि दी. प्रसिद्ध समीक्षक डा० गंगा प्रसाद ’विमल’ ने’पंकज’ जी की ’हिमालय के प्रति’ कविता का पाठ करते हुए उसे अब तक हिमालय पर हिन्दी में लिखी गयी सर्वश्रेष्ठ कविता घोषित किया. संगोष्ठी में डा० विजय शंकर मिश्र ने अपना आलेख पाठ करते हुए ’पंकज’ की कविताओं को बेहद संघर्ष और अटूट आदर्श की कविता घोषित किया.चर्चित समीक्षक डा० सुरेश ढींगरा ने भी पंकज की कविताओं की समीक्षा करते हुए उन्हें संताल परगना या अंग-प्रदेश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का महान कवि घोषित करते हुए उनके रचना-संसार पर नयी समीक्षा दृष्टि विकसित करने की जरूरत पर बल दिया. डा० ढींगरा ने पंकज की कविताओं में अभिव्यक्त भविष्य के प्रति आशावादी दृष्टि को स्वाधीनता के संग्राम से निकले हुए रचनाकार की पीढ़ी का आशावाद बताते हुए आज के समाज के हिंसक दौर को उन आशाओं के टूटने की परिणति बताया.
प्रसिद्ध कथाकार तथा समीक्षक डा० विक्रम सिंह ने इस बात पर जोर दिया कि आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ के विराट व्यक्तित्व एवं संताल परगना में 1955-1975 तक हिन्दी साहित्य की धूम मचाने वाली उनके नाम पर बनी संस्था ’पंकज-गोष्ठी’ के ऐतिहासिक योगदान के बावजूद अगर पंकज को विस्मृत किया जा रहा है तो यह जरूर किसी साजिश का हिस्सा है, क्योकि उनके प्रचंड व्यक्तित्व की आंच में झुलसने से बचने के लिये उस समय के कुछ विख्यात समीक्षकों ने पंकज और उनके कार्यों को पूरी तरह उपेक्षित किया.
जामिया मिलिया इस्लामिया से आये इतिहासकार डा० रिजवान कैसर तथा दिल्ली विश्वविद्यालय विद्वत् परिषद् सदस्य और इतिहासविद् डा० अशोक सिंह ने आचार्य पंकज को साहित्य ही नहीं, बल्कि इतिहास की भी धरोहर बताया और उन पर शोध करने की आवश्यकता पर बल दिया.
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे मशहूर समाजवादी चिंतक और लेखक श्री मस्तराम कपूर ने ’पंकज’ की ’उद्बोधन’ कविता को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बताते हुए कहा कि ऐसी बेजोड़ कविताएं सिर्फ स्वाधीनता सेनानी पंकज या उनकी पीढ़ी के कवि ही लिख सकते थे. यही उनके अनूठेपन का सबसे बड़ा प्रमाण है. उनके अनुसार आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ समेत हिन्दी के सैकड़ों साहित्यकारों को इसीलिये गुमनामी में भेजने का षड्यंत्र रचा गया, क्योंकि पचास के दशक के ऐसे रचनाकारों के जीवन-दर्शन और जीवन मूल्य के केंद्र में गांधी थे.
आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज या पंकज जी के बारे मे ऊपर दर्शाए गये विवरणों के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं----1) कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र ने पंकज जी को प्रखर व्यक्तित्व का स्वामी बनाया था.2) भयंकर विपन्नता के वावजूद निरन्तर संघर्षशीलता की प्रवृत्ति ने पंकज जी को युवाओं का आदर्श और हीरो बनाया.3) उनकी कर्मठता की कहानियां दूर-दूर तक फ़ैली हुई हैं.4) १९४२ के भरत-छोडो आन्दोलन दौरान दिन में सीधे-सादे शिक्षक और रात में अपने छात्रों के साथ विप्लवी की उनकी भूमिका ने उन्हें अपने छात्रों का रोल माडल बना दिया.5) अपनी धुरंधर विद्वता तथा वक्तृत्व कला के बल पर वे मानो वशीकरण के सिद्ध पुरूष हो गये.6) कवि के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और उनकी लोकप्रियता में काफी अभिवृद्धि हुई.7) पंकज-गोष्ठी ने संताल-परगना के सुदूर ग्राम्य क्षेत्रों तक हिन्दी-साहित्य का विस्तार किया जिसके चलते पंकज जी आम लोगों की स्मृति में बस गये.8) अनुशासित तथा लोकप्रिय अध्यापक के रूप मे उनका बहुत सम्मान था. 9) उनकी असाधारण सादगी ने उन्हें महामनव की तरह महिमा मंडित किया.10) एक ही साथ आम और खास---बन जाने वाले पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक अलौकिक दैवीय चमत्कार का परिणाम मान लिया गया.11) उनका व्यक्तित्व काफी सम्मोहक था. पंकज जी को जिन्होंने भी देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये. जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये. परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले ही थे, इसलिए किसी भी तरह की भावुकता से बचते हुए वैचारिक स्पष्टता के साथ उनका``सम्यक``मूल्यांकन``करने``की``जरूरत``है और उनके योगदानों को किस तरह से संताल परगना के बौद्धिक और शिक्षित समूह रेखांकित करते हैं, इसको समझने की जरूरत है.
चूंकि विद्रोह की लम्बी ऐतिहासिक परम्परा संताल परगना में पहले से मौजूद रही है, वहां की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टता ने भी वहां के लोगों मे अत्म-अभिमान के भाव भरे हैं. दूसरी तरफ, विकास की दौड में लगातार पिछडते चले जाने के कारण राजनीतिक प्रक्रिया से वहां मोह-भंग की स्थिति बन गयी है. परिणामतः अगर एक तरफ नक्सलवाद वहां अपनी जडें जमा रहा है तो दूसरी तरफ महेशनारायण, भवप्रीतानन्द, दर्शणदूबे, जनार्धन मिश्र "परमेश", बुद्धिनाथ झा "कैरव" तथा आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा "पंकज" जैसे साहित्य-सेवियों की उपेक्षा को संताल परगना की उपेक्षा के साथ जोडकर देखा जा रहा है. इसलिये इन सभी महपुरुषों के व्यक्तित्व के आस-पास रहस्य का आवरण चढने लगा है और इतिहास का मिथिकीकरण होने लगा है. अतः संताल परगना के इतिहास को इन मिथकों और दन्त-कथाओं के आवरण से मुक्त करके वहां का वास्तविक इतिहास लिखने का जरूरी काम इतिहासकारो को करना होगा.
संदर्भ
1).The Santal Pargana District Gazetters
2) ’स्नेह-दीप’, दुमका, 1958
3) उद्गार, दुमका, 1962.
4) बाँस-बाँस बाँसुरी ’भाषा-संगम’, दुमका
5) अपूर्व्या, दुमका,1996
6) प्रभात-खबर, देवघर, 4 जुलाई, 2005.
7) प्रभात-खबर, दुमका, 1 जुलाई, 2009.
8) प्रगति वार्ता, साहिबगंज, झारखंड ,अक्तूबर, 2009
9) प्रथम प्रवक्ता, नई दिल्ली, 16 अक्तूबर, 2009.
10) सामयिक वार्ता, नई दिल्ली, अक्तूबर, 2009.
posted by Amarnath Jha Associate Professor S S N College D U India.
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