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User:Tapati maiya

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पुराणों में ताप्ती जी की जन्मकथा श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के बारे में रामायण में एक कथा पढऩे को मिलती है कि राजा दशरथ के शब्द भेदी से श्रवण कुमार की जल भरते समय अकाल मृत्यु हो गई थी. पुत्र की मौत से दुखी श्रवण कुमार के माता - पिता ने राजा दशरथ को श्राप दिया था कि उसकी भी मृत्यु पुत्र मोह में होगी. राम के वनवास के बाद राजा दशरथ भी पुत्र मोह में मृत्यु को प्राप्त कर गये लेकिन उन्हे जो हत्या का श्राप मिला था जिसके चलते उन्हे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकी. एक अन्य कथा यह भी है कि ज्येष्ठ पुत्र के जीवित रहते अन्य पुत्र द्वारा किया अंतिम संस्कार एवं क्रियाक्रम भी शास्त्रो के अनुसार मान्य नहीं है. ऐसे में राजा दशरथ को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकी थी. राजा दशरथ द्वारा ताप्ती महात्म की बताई कथा का भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम को ज्ञान था. इसलिए उन्होने सूर्यपुत्री देव कन्या मां आदिगंगा ताप्ती के तट पर अपने अनुज लक्ष्मण एवं माता सीता की उपस्थिति में अपने पितरो एवं अपने पिता का तर्पण कार्य ताप्ती नदी में किया था. भगवान श्री राम ने बारहलिंग नामक स्थान पर रूक कर यहां पर भगवान विश्वकर्मा की मदद से बारह लिंगो की आकृति ताप्ती के तट पर स्थित चटटनो पर ऊकेर कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की थी. बारहलिंग में आज भी ताप्ती स्नानगार जैसे कई ऐसे स्थान है जो कि भगवान श्री राम एवं माता सीता के यहां पर मौजूदगी के प्रमाण देते है. एक अन्य कथा के अनुसार दुर्वशा ऋषि ने देवलघाट नामक स्थान पर बीच ताप्ती नदी में स्थित एक चटटन के नीचे से बने सुरंग द्वार से स्वर्ग को प्रस्थान किया था. शास्त्रो में कहा गया है कि यदि भूलवश या अनजाने से किसी भी मृत देह की हडड्ी ताप्ती के जल में प्रवाहित हो जाती है तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नहीं होती ठीक उसी प्रकार किसी भी अकाल मौत के शिकार बनी देह की अस्थियां ताप्ती जल में प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे ताप्ती जल में प्रवाहित किये जाने से अकाल मौत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है. ताप्ती नदी के बहते जल में बिना किसी विधि - विधान के यदि कोई भी व्यक्ति अतृप्त आत्मा को आमंत्रित करके उसे अपने दोनो हाथो में जल लेकर उसकी शांती एवं तृप्ति का संकल्प लेकर यदि उसे बहते जल में प्रवाहित कर देता है तो मृत व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. सबसे चमत्कारिक तथ्य यह है कि ताप्ती के पावन जल में बारह माह किसी भी मृत व्यक्ति का तर्पण कार्य संपादित किया जा सकता है. इस तर्पण कार्य को ताप्ती जन्मस्थली मुलताई में गायत्री परिवार द्वारा नि:शुल्क संपादित किया जाता है . ताप्ती नदी के जल में मुलताई से लेकर सूरत गुजरात तक कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म - जाति - सम्प्रदाय - वर्ग का अपने किसी भी परिजन या परिचित व्यक्ति की मृत आत्मा का तर्पण कार्य संपादित कर सकता है. सूर्यपुत्री मां ताप्ती भारत की पश्चिम दिशा में बहने वाली प्रमुख दो नदियो में से एक है. यह नाम ताप अर्थात उष्ण गर्मी से उत्पन्न हुआ है. वैसे भी ताप्ती ताप - पाप - श्राप और त्रास को हरने वाली आदीगंगा कही जाती है. स्वंय भगवान सूर्यनारायण ने स्वंय के ताप को कम करने के लिए ताप्ती को धरती पर भेजा था. यह सतपुड़ा पठार पर स्थित मुलताई के तालाब से उत्पन्न हुई है लेकिन इसका मुख्य जलस्त्रोत मुलताई के उत्तर में 21 अंक्षाश 48 अक्षंाश पूर्व में 78 अंक्षाश एवं 48 अंक्षाश में स्थित 790 मीटर ऊँची पहाड़ी है जिसे प्राचिनकाल में ऋषिगिरी पर्वत कहा जाता था जो बाद में नारद टेकड़ी कहा जाने लगा . इस स्थान पर स्वंय ऋषि नारद ने घोर तपस्या की थी तभी तो उन्हे ताप्ती पुराण चोरी करने के बाद उत्पन्न कोढ़ से मुक्ति का मार्ग ताप्ती नदी नदी में स्नान का महत्व बताया गया था. मुलताई का नारद कुण्ड वही स्थान है जहाँ पर नारद को स्नान के बाद कोढ़ से मुक्ति मिली थी. ताप्ती नदी सतपुड़ा की पहाडिय़ो एवं चिखलदरा की घाटियो को चीरती हुई महाखडड में बहती है. 201 किलोमीटर अपने मुख्य जलस्त्रोत से बहने के बाद ताप्ती पूर्वी निमाड़ में पहँुचती है. पूर्वी निमाड़ में भी 48 किलोमीटर सकरी घाटियो का सीना चीरती ताप्ती 242 किलोमीटर का सकरा रास्ता खानदेश का तय करने के बाद 129 किलोमीटर पहाड़ी जंगली रास्तो से कच्छ क्षेत्र में प्रवेश करती है. लगभग 701 किलोमीटर लम्बी ताप्ती नदी में सैकड़ो कुण्ड एवं जल प्रताप के साथ डोह है जिसकी लम्बी खाट में बुनी जाने वाली रस्सी को डालने के बाद भी नापी नही जा सकी है. इस नदी पर यूँ तो आज तक कोई भी बांध स्थाई रूप से टिक नही सका है मुलताई के पास बना चन्दोरा बांध इस बात का पर्याप्त आधार है कि कम जलधारा के बाद भी वह उसे दो बार तहस नहस कर चुकी है. सूरत को बदसूरत करने वाली ताप्ती वैसे तो मात्र स्मरण मात्र से ही अपने भक्त पर मेहरबान हो जाती है लेकिन किसी ने उसके अस्तित्व को नकारने की कुचेष्टïा की तो वह फिर शनिदेव की बहन है कब किसकी साढ़े साती कर दे कहा नही जा सकता. ताप्ती नदी के किनारे अनेक सभ्यताओं ने जन्म लिया और वे विलुप्त हो गई .भले ही आज ताप्ती घाटी की सभ्यता के पर्याप्त सबूत न मिल पाये हो लेकिन ताप्ती के तपबल को आज भी कोई नकारने की हिम्मत नही कर सका है. पुराणो में लिखा है कि भगवान जटाशंकर भोलेनाथ की जटा से निकली भागीरथी गंगा मैया में सौ बार स्नान का , देवाधिदेव महादेव के नेत्रो से निकली एक बुन्द से जन्मी शिव पुत्री कही जाने वाली माँ नर्मदा के दर्शन का तथा माँ ताप्ती के नाम का एक समान पूण्य एवं लाभ है . वैसे तो जबसे से इस सृष्टिï का निमार्ण हुआ है तबसे मूर्ति पूजक हिन्दू समाज नदियों को देवियों के रूप में सदियों से पूजता चला आ रहा है . हमारे धार्मिक गंथो एवं वेद तथा पुराणो में भारत की पवित्र नदियों में ताप्ती एवं पूर्णा का भी उल्लेख मिलता है . सूर्य पुत्री ताप्ती अखंड भारत के केन्द्र बिन्दु कहे जाने वाले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के प्राचीन मुलतापी जो कि वर्तमान में मुलताई कहा जाता है . इस मुलताई नगर स्थित तालाब से निकल कर समीप के गौ मुख से एक सुक्ष्म धार के रूप में बहती हुई गुजरात राज्य के सूरत के पास अरब सागर में समाहित हो जाती है . सूर्य देव की लाड़ली बेटी एवं शनिदेव की प्यारी बहना ताप्ती जो कि आदिगंगा के नाम से भी प्रख्यात है वह आदिकाल से लेकर अनंत काल तक मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि महाराष्टï्र एवं गुजरात के विभिन्न जिलों की पूज्य नदियों की तरह पूजी जाती रहेगी . जिसका एक कारण यह भी है कि सूर्यपुत्री ताप्ती मुक्ति का सबसे अच्छा माध्यम है . सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि सूर्य पुत्री ताप्ती की सखी सहेली कोई और न होकर चन्द्रदेव की पुत्री पूर्णा है जो की उसकी सहायक नदी के रूप में जानी - पहचानी जाती है . पूर्णा नदी भैंसदेही नगर के पश्चिम दिशा में स्थित काशी तालाब से निकलती हैं. प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्घालु लोग अमावस्या और पूर्णिमा के समय इन नदियों में नहा कर पूर्ण लाभ कमाते हैं . एक किवदंती कथाओं के अनुसार सूर्य और चन्द्र दोनों ही आपस में एक दूसरे के विरोधी रहे हैं , तथा दोनों एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं. ऐसे में दोनों की पुत्रियों का अनोखा मिलन बैतूल जिले में आज भी लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बना हुआ हैं . धरती पर ताप्ती के अवतरण की कथा पौराणिक कथाओं में उल्लेखित वर्णन के अनुसार एक समय वह था जब कपिल मुनि से शापित जलकर नष्टï हो पाषाण बने अपने पूर्वजों का उद्धार करने इस पृथ्वी लोक पर, गंगा जी को लाने भागीरथ ने हजारों वर्ष घोर तपस्या की थी. उसके फलस्वरूप गंगा ने ब्रम्ह कमण्डल (ब्रम्हलोक से) धरती पर, भागीरथ के पूर्वजों का उद्धार करने आने का प्रयत्न तो किया परंतु वसुन्धरा पर उस सदी में मात्र ताप्ती नदी की ही सर्वत्र महिमा फैली हुई थी. ताप्ती नदी का महत्व समझकर श्री गंगा पृथ्वी लोक पर आने में संकुचित होने लगी, तदोउपरांत प्रजापिता ब्रम्हा विष्णु तथा कैलाश पति शंकर भगवान की सूझ से देवर्षिक नारद ने ताप्ती महिमा के सारे ग्रंथ लुप्त करवा दिये, तब ही गंगा धारा पर सूक्ष्म धारा में हिमालय से प्रगट हुई, ठीक उस समय से सूर्य पुत्री कहलाने वाली ताप्ती नदी का महत्व कुछ कम हो गया, कुछ ऐसी ही गाथाये मुनि ऋषियों से अक्सर सुनी जाती रही है, आज भी ताप्ती जल में एक विशेष प्रकार का वैज्ञानिक असर पड़ा है, जिसे प्रत्यक्ष रूप से स्वयं भी आजमाईश कर सकते है. ताप्ती जल में मनुष्य की अस्थियां एक सप्ताह के भीतर घुल जाती है. इस नदी में प्रतिदिन ब्रम्हामुहुर्त में स्नान करने में समस्त रोग एवं पापो का नाश होता है. तभी तो राजा रघु ने इस जल के प्रताप से कोढ़ जैसे चर्म रोग से मुक्ति पाई थी. ताप्ती का पूर्णा से मिलन पश्चिम दिशा की ओर तेज प्रभाव से बहने वाली ताप्ती नदी मध्यप्रदेश महाराष्टï्र व गुजरात में करीब 470 मील (सात सौ बावन किलोमीटर) बहती हुई अरब सागर में मिलती हैं. ताप्ती नदी बैतूल जिले में सतपुड़ा की पहाडिय़ों के बीच से निकलती हुई महाराष्टï्र के खान देश में 96 मील समतल तथा उपजाऊ भूमि के क्षेत्र से गुजरती हैं . खान देश में ताप्ती की चौड़ाई 250 से 400 गज तथा ऊंचाई 60 फीट है. इसी तरह गुजरात में 90 मील के बहाव में यह नदी अरब सागर में मिलती हैं . ताप्ती की सहायक नदी कहलाने वाली पूर्णा नदी भैंसदेही के काशी तालाब से निकलती हुई आगे चलकर महाराष्टï्र के भुसावल नगर के पास ताप्ती में मिल जाती हैं. पुराणों में ताप्ती जी की जन्मकथा इतिहास के पन्नों पर छपी कहानियों को पढऩे से पता चलता है कि बैतूल जिले की मुलताई तहसील मुख्यालय के पास स्थित ताप्ती तालाब से निकलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की जन्मकथा महाभारत में आदि पर्व पर उल्लेखित है. पुराणों में सूर्य भगवान की पुत्री तापी जो ताप्ती कहलाई सूर्य भगवान के द्वारा उत्पन्न की गई. ऐसा कहा जाता है कि भगवान सूर्य ने स्वयं की गर्मी या ताप से अपनी रक्षा करने के लिए ताप्ती को धरती पर अवतरित किया था. भविष्य पुराणों में ताप्ती महिमा के बारे में लिखा है कि सूर्य ने विश्वकर्मा की पुत्री संजना से विवाह किया था. संजना से उनकी दो संताने हुई- कालिन्दनी और यम. उस समय सूर्य अपने वर्तमान रूप में नहीं वरन अण्डाकार रूप में थे. संजना को सूर्य का ताप सहन नहीं हुआ . अत: अपने पति की परिचर्चा अपनी दासी छाया को सौंपकर वह एक घोड़ी का रूप धारण कर मंदिर में तपस्या करने चली गई . छाया ने संजना का रूप धारण कर काफी समय तक सूर्य की सेवा की . सूर्य से छाया को शनिचर और ताप्ती नामक दो संतान हुई . इसके अलावा सूर्य की एक और पुत्री सावित्री भी थी . सूर्य ने अपनी पुत्री को यह आशीर्वाद दिया था कि वह विनय पर्वत से पश्चिम दिशा की ओर बहेगी. यम चतुर्थी के दिन ताप्ती भाई-बहन के स्नान का महत्व पुराणों में ताप्ती के विवाह की जानकारी पढऩे को मिलती है. वायु पुराण में लिखा है कि कृत युग में चन्द्रवंश में ऋष्य नामक एक प्रताप राजा राज्य करते थे . उनके एक सवरण को गुरू वशिष्ठï ने वेदों की शिक्षा दी. एक समय की बात है सवरण राजपाट का दायित्व गुरू वशिष्ठï के हाथों सौंपकर जंगल में तपस्या करने के लिए निकल गये . वैभराज जंगल में सवरण ने एक सरोवर में कुछ अप्सराओं को स्नाने करते हुए देखा जिनमें से एक ताप्ती भी थी. ताप्ती को देखकर सवरण मोहित हो गया और सवरण ने आगे चलकर ताप्ती से विवाह कर लिया . सूर्य पुत्री ताप्ती को उसके भाई शनिचर (शनिदेव) ने यह आशीर्वाद दिया कि जो भी भाई-बहन यम चतुर्थी के दिन ताप्ती और यमुना जी में स्नान करेगा उन्हें कभी भी अकाल मौत नहीं होगी. प्रतिवर्ष कार्तिक माह में सूर्य पुत्री ताप्ती के किनारे बसे धार्मिक स्थलों पर मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्घालु नर नारी कार्तिक अमावस्या पर स्नान करने के लिये आते हैं .

भगवान श्री राम द्घारा निर्मित बारह शिवलिंग ऐसी पुरानी मान्यता है कि भगवान श्री राम, लखन, सीता समेत वन गमन के उपरांत इस स्थान पर ठहरे हुए थे. ठीक उसी समय स्वयं श्री राम के हाथों द्घारा निर्मित यह बारह शिवलिंग तथा सीता स्नानागार शुशुप्त रूप से आज भी विद्यमान है, जो पाषाण शिला पर अंकित पुराना इतिहास के गवाह है. ग्राम खेड़ी सांवलीगढ़ से ग्यारह किलोमीटर दूर त्रिवेणी भारती बाबा की तपोभूमि ताप्ती घाट जो इस क्षेत्र में तो क्या संपूर्ण बैतूल जिले में बहुधा जानी पहचानी जगह है. बारहलिंग नामक स्थान पर जो ताप्ती नदी के तट पर स्थित है, यहां कि प्राकृतिक छठा सुन्दर मनमोहक दृश्य आने-जाने वाले यात्रियों का मन मोह लेते है. घने हरियाले जंगलो से आच्छादित प्रकृति की अनुपम छटा बिखरेती हुई ताप्ती नदी शांत स्वरों में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर बहती है. यहां पर नदी के दूसरे तट पर ताप्ती माई का एक विशाल मंदिर दत्तात्रेय, रामलखन सीता तथा गैबीदास महाराज की समाधी स्थल मुख्य आकर्षण का केंद्र है. प्रतिवर्ष यहां कार्तिक पूर्णिमा को तीन दित तक चलने वाला मेला लगता है. यहां समूचे क्षेत्र की जनता अटूट श्रद्धा भक्ति के साथ मेले में तीन दिवस के विधिविधान के साथ भगवान सूर्य को अर्ध देकर स्नान कर पूजा अर्चना करते है और फिर मेले में खरीद फरोख्त करते है. रात्रि में आदिवासियों द्वारा डंडार, नौटंकी आदि कई प्रकार के आयोजन किए जाते है. किंतु विड़म्बना है कि प्रशासन की नाक के नीचे ऐसे प्राकृतिक स्थल कि ओर उनका जरा भी ध्यान नहीं है और आज यह स्थल दुव्र्यवस्थाओं का शिकार हो रहा है . नदियों के आसपास सर्वाधिक शिवलिंग बैतूल जिलेे मे सूर्य पुत्री और चन्द्रपुत्री में आज भी दर्जनों की संख्या में मिलने वाले पुराने मंदिरों के अवशेषों में शिवलिंगों की संख्या अधिक है. कहा तो यहां तक जाता है कि ताप्ती नदी के किनारे बसे 12 लिंग स्थान पर नदी में आज भी प्रकृति द्वारा बनाये गये 12 लिंग लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बने हुये हैं. बैतूल जिले की ये दोनों नदियां अपने अंचल में अनेकों शिवलिंगों को समाये हुये हैं. लाखों की संख्या में पहुंचाने वाले शिव भक्तों की श्रद्घा का केन्द्र बनी हुई सूर्य पुत्री ताप्ती और चन्द्रपुत्री पूर्णा बैतूल जैसे पिछड़े जिले का इतिहास के अनेक अनसुलझे रहस्यों को छुपाये हुयी है. सदियो से बनता चला आ रहा है पत्थरो से बना रामसेतू भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम द्घारा बनाये गये रामसेतू को लेकर भले ही विवाद छीड़ा हो लेकिन मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में तो सदियो से भगवान श्री राम द्घारा स्थापित बारह शिवलिंगो की पूजा करने के लिए आसपास की जनजाति के लोग ताप्ती नदी के इस छोर से उस छोर पर जाने के लिए पत्थरो का पूल ठीक उसी तरह बनाते चले आ रहे है जैसा कि रामसेतू बना था. पूर्व से पश्चिम की ओर तेज प्रवाह से बहने वाली सूर्यपुत्री आदि गंगा कही जाने वाली ताप्ती नदी के एक छोर से दुसरे छोर कार्तिक माह की पूर्णिमा को लगने वाले बारहलिंग के मेले के लिए आने वाली हजारो श्रद्घालु जनता को आने - जाने के लिए इसी पत्थरो से बने अस्थायी पूल से आना - जाना करना पड़ता हैै.अपने पिता राजा दशरथ एवं माता कैकेई के आदेश का पालन करते हुये अपनी पत्नि सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष का वनवास काटते हुये चित्रकुट से दण्डकारण क्षेत्र में प्रवेश करते समय भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम जिस पथ से रावण की लंका की ओर चले गये थे उस पथ में शामिल बैतूल जिले का पौराणिक इतिहास कई अनसुलझे रहस्यो को अपने आँचल में छुपाये हुये है . ऐसी पौराणिक कथाओ से जुड़ी एक कथा अनुसार राम से जुड़ी दंत एवं प्रचलित तथा पौराणिक कथाओं के अनुसार कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन भगवान श्रीराम ने ताप्ती नदी के किनारे बारह शिव लिंगो की स्थापना कर उनका पूजन किया था तथा इसी स्थान पर रात्री विश्राम करने की व$जह से आसपास की जनजाति के लोगा यहाँ पर तीन दिन की तीरथ यात्रा क लिए आकर रात्री मुकाम करते हैै. कथाओ एवं पुराणो के अनुसार श्री राम ने वनो में उगने वाले फलो में से एक को जब माता सीता को दिया तो उन्होने इसका नाम जानना चाहा तब भगवान श्री राम ने कहा कि हे सीते अगर तुम्हे यह फल यदि अति प्रिय है तो आज से यह सीताफल कहलायेगा. आज बैतूल जिले के जंगलो एवं आसपास की आबादी वाले क्षेत्रो में सर्वाधिक संख्या में सीताफल पाया जाता है. बारहलिंग नामक स्थान पर आज भी सीता स्नानागार एवं विलुप्त अवस्था में भगवान श्री राम द्घारा पत्थरो पर ऊकेरे गये बारह शिवलिंग स्प्ष्टï दिखाई पड़ते हैै. सूरजमुखी - सूर्यमुखी ताप्ती यँू तो भारत की पवित्र नदियो में उल्लेखीत माँ नर्मदा एवं माँ ताप्ती ही पश्चिम मुखी नदियाँ है . ताप्ती और नर्मदा ही एक स्थान पर पूर्व की ओर बही है . गंगा सागर को पवित्र स्थान इसलिए कहा जाता है कि उस स्थान पर गंगा जी पूर्व की ओर बहती है. ताप्ती जिस स्थान पर पूर्व की ओर बही है उस स्थान को सूर्यमुखी , सूरज मुखी , गंगा सागर जैसे कई नामो से पुकारा जाता है . अग्रितोड़ा नामक गांव के पास सूर्यपुत्री ताप्ती ने पश्चिम से पूर्व की ओर अपनी जलधारा को बदल दिया है इसलिए प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन हजारो की संख्या में दूर - दराज और अन्य जिलो एवं प्रदेशो से श्रद्घालु भक्त माँ ताप्ती के जल में स्नान कर उस जल से उसके पिता सूर्यनारायण एवं भाई शनिदेव को जल अपर्ण कर उनकी पूजा अराधना करते है. मकर संक्राति के अवसर पर ताप्ती में स्नान और ध्यान को ज्योतिषी शास्त्र एवं पंडित तथा जानकार लोग सबसे शुभ अवसर मानते है क्योकि इस दिन आपस में एक दुसरे के घोर विरोधी पिता एवं पुत्र दोनो मां ताप्ती के जल में स्नान और ध्यान से प्रसन्नचित होकर इच्छानुसार मनोकामना पूर्ण करते है. इस स्थान पर रामकुण्ड है जिसके बारे में कहा जाता है कि इस कुण्ड में भगवान श्री राम ने स्नान ध्यान किया था. जब मेघनाथ ने ताप्ती और नर्मदा की धारा उल्टी बहा दी यूं तो यह आम धारणा है कि बैतूल जिला सदियों पहले रावण के अधीन राज्य का एक अंग था. इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी इसी कारण सदियों से होलिका दहन के दूसरे दिन रावण के बलशाली पुत्र मेघनाथ की पूजा करते चले आ रहे है. जिले के हर गांव में जहां पर आदिवासी परिवार रहता है उस गांव में एक स्थान पर जैरी का खंबा गाड़ा होता है और इसी जैरी के खंबे पर चढ़कर पूजा अर्चना की जाती है. रावण संहिता में उल्लेखित कहानी के अनुसार नर्मदा और ताप्ती नदी के किनारे जब रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने अपने तप बल के बल पर नर्मदा और ताप्ती की धाराओं को उल्टी बहा दिया तो उसे देखकर आदिवासी लोग डर गए . उस समय से लेकर आज तक उक्त सभी डरे सहमे आदिवासियों के वंशज पीढ़ी दर पीढ़ी से रावण और उसके बलशाली पुत्र मेघनाथ को ही अपना राजा मानकर उसकी पूजा अर्चना करते चले आ रहे है. रावण संहिता में मेघनाथ को लेकर कई किवदंत कहानियां लिखी हुई है जिसके अनुसार भवगान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पुत्री कही जाने वाली माँ नर्मदा एवं सूर्य पुत्री माँ ताप्ती नदी के किनारे रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने काफी समय तक जटिल एवं कठिन तपस्याएं करके अपने तपबल के बल पर बहुत सारी सिद्घियां प्राप्त की थी. धरातल के गर्त में छुपी हुई कहानियाँ यँू तो भारत की पवित्र नदियो में उल्लेखीत माँ नर्मदा एवं माँ ताप्ती ही पश्चिम मुखी नदियाँ है . गंगा जी इलाहबाद में जिस दिशा से आती है वापस उसी दिशा में लौटती है. ठीक इसी प्रकार बैतूल जिला मुख्यालाय से मात्र छै किलो मीटर की दूरी पर स्थित बैतूल बाजार नामक शहर के किनारे से बहती सापना नदी जिस दिशा में आती है उसी दिशा में वापस बहती है . ऐसा उन्हीं स्थानों पर होता है जो धार्मिक दृष्टिï से लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बने हुये है . नदियों और इंसानों का रिश्ता शायद सबसे पुराना रिश्ता है तभी तो नदियों के किनारे अनेक सभ्यताओं ने समय-समय पर जन्म लिया है . आज आवश्यकता है पुरातत्व विभाग की जो इन नदियों के आगोश में छुपे रहस्यों को खोज निकाले ताकि यह पता चल सके कि आज के बैतूल और भूतकाल के इस धार्मिक क्षेत्र का इतिहास क्या था? यहां यह उल्लेखनीय है कि बैतूल जिले में ही जैनियों की पवित्र मुक्तागिरी नामक तीर्थ स्थली हैं जहां पर आज भी केसर की वर्षा होती है . जिला मुख्यालय से लगे एक प्राचीन गांव बैतूल बाजार नामक पूरे देश दुनिया में एक मात्र मंदिरों का गाँव है, जहां पर बहुसंख्या में शिवमंदिर देखने को मिलते हैं. हिन्दू वेद एवं पुराणों तथा ग्रंथों में अनेक नामों से उल्लेखित इस गांव का इतिहास आज तक पता नही चल सका है . आज इस जिले की धरातल के गर्त में अनकोनेक छुपी हुई कहानियों और किस्सो को ढूंढ निकालने की आवश्यकता है .



।। श्री शनिदेव स्तुति।। जय सूर्यपुत्र प्रचंड यश न्यायाधिपति जन वत्सलम्। अति भीमरूप अनूप प्रभुता दुखदलन अद्भुत बलम्।। जय गीध वाहन सत्यप्रिय जय नलवर्ण कलेवरम्। तापी अनुज जय तापहर आकाशचर करूणाकरम्।। जय तीक्ष्ण दृष्टि अनंत वैभव मंदसौरि धनुर्धरम्। छाया सुवन यम ज्येष्ठ बंधु कृपालु देव शनैश्चरम।। जय कृष्ण प्रिय कोणस्थ प्रभु कौशेय नीलाम्बरधरम्।। पावन गुणाकर कर्म फलद पुनीत कीर्ति दयापरम।। जय मित्रपुत्र पवित्र 'विश्वामित्रÓ शरण भयातुरम्। भवभीति दुख प्रतीति नाशहु भक्तजन पीड़ाहरम्।।

।। श्री यमराज स्तुति।। जय धर्मराज उदार महिला अमित जय रविनंदनम्। करूणानिधान कृपालु जय हरि भक्तिमय जगवंदनम्।। संतज्ञातनय जय दण्डधर जय शनि अनुज शासकवरम्। जय संयमनिपुनाथ जय यमराज अनुशासनपरम्।। जय रक्तनेत्र विशाल भुज विधुवदन देव गुणाकरम्।। जय सौरि वेद विधान पालक कर्मफल वरदायकम्।। जय धर्म रक्षक तापहर दक्षिण दिशा अधिनायकम्।। जय तापि यमुना बंधु करूणासिंधु देव सुखाकरम्। जय चित्रगुप्त सुमित्र 'विश्वामित्रÓ शरण दयापरम्। श्री कृष्णभक्ति प्रदान कुरू आनंदमयि संशयहरम्।।

भगवती तपती को त्रिकाम प्रणाम ।। श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नम:।। प्रातर्नमामि शक्तिं सूर्यजां कल्याणदां मधुमयीं- सह्याद्र्यां कोद्भुत्तरंगमाल रुचिरां पश्चिमार्णवोन्मुखीम्। भक्ताभीष्टप्रदां कल्मषहरां तरलां जन वत्सलां- त्वच्छरणं भव भीत्याकुल धिय: विश्वामित्रोऽहमागत।। मध्याहृं प्रणमामि मातु विमलां करुणातरंगमालिनीं- कृष्णप्रियानुजा परमामाद्यां चारुस्मितामर्कदेहजाम्।। सावित्रीस्त्वं देवि कल्पलतिकां कल्याण ब्रह्मद्रवां- त्वच्छरणं भवभीत्याकुलधिय: विश्वामित्रोऽहमागत।। सायं नमामि माता भगवती प्रकृतिं परां भानुजां- षन्मुख राघव भीष्म पाण्डु प्रभृति संसेव्या करुणामयीम्।। सेवंती जनकल्मषापहारिं शुभ्रुं वत्सलां कुरू मातरं- त्वच्छरणं भवभीत्याकुलधिय: विश्वामित्रोऽहमागत।। वन्दे तोयमयीं देवीं साक्षात्परादेवता। ब्रहषन्मुख राघवादिसेव्या भगवती वैवस्वती।। कर्मजाल निरस्तकारि वारि वीचीमधुमंगलं। सेवन्तीं शुभकारि कल्पलतिका तपतीं लोकमातरम्।।

।। भगवती तपती स्तुति।। जय तपति जय मार्तण्ड नंदनि आद्यङ्ग सुरेश्वरी। करुणामयी अम्भोजनयना भक्तप्रिय भुवनेश्वरी।। जय तप्तकांचनवर्ण ज्योतित विधुवदन मखधीश्वरी। भुजचार परम उदार दान अपार सदय क्रियेश्वरी।। मनतापहर तनतापहर वचतापहर वागीश्वरी। जय चंद्रवंशवधू सुदक्ष मनोज्ञ शुभगुण आगरी।। जय कुरूजननि वात्सल्यमयि आरतिहरण ममताधरी।। जय नारदादि विपत्ति भंजनि शरणदानि महेश्वरी। द्रव रूप दया विवित्र 'विश्वामित्रÓ शरण जनेश्वरी।।

।। अथ कथाप्रवेश:।। मङ्गलाचरणम् गणाधिपं नमस्कृत्य नत्वां देवीं सरस्वतीम्। हिमाद्रितनयां वंदे सर्व वाच्छितदायिनि।। वन्दे देवमुमानाथं भक्ताभीष्टप्रदं विभुम्। चन्द्रचूडं मृडं रुद्रं शूलपाणिं महेश्वरम्।। मत्स्यं कूर्मं वराहं च नृसिंहिं वामनं हरिम्। यामदग्रिं तथा रामं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।। कविं चाद्यं वन्दे प्राचेतसं यशस्करम्। ददाति शाश्वतीं भक्तिं यस्य रामायणी कथा।। अज्ञान-तिमिरं गाढ़ं स्व प्रज्ञया: विनाशक:। वेदव्यास-कृतं व्यासं द्वैपायनं नतोस्म्यहम्।। हनुमानंजनीसूनुर्भक्त्यवतार चिन्मयम्। वन्दे सदा प्लवंगेशं राम भक्त्यर्पितमतिम्।। गंगां गोदावरीं रेवां कावेरीं च सरस्वतीम्। वंदे सूर्यसुतां यमुनां तपतीं भक्तवत्सलाम्।। आदित्यं सोम भौमं च बुधं गुरूं च भार्गवम्। मंदे राहुं च केतुं च दुरवस्थां मे व्यपोहतु।। रामानुजयतीं वन्दे श्रीमताचार्य भक्तिदम्। रामानन्दं विष्णुस्वामीं निम्बादित्यं महाप्रभुम्।। या सुप्तेषु जागर्ति: शरणमंत्र प्रदायक:। श्रीमद्वल्लभाचार्यं प्रणमामि मुहुर्मुहु:।। विश्वामित्रनाम्नोऽहं भक्तयाकांक्षी अधोक्षजे। तद्धेतुं प्रवक्ष्यामि तपती-चरित मद्भुतम्।। तपत्युपाख्यानं दिव्यं भारते मुनि कीर्तित:। अद्याहं सम्पादयामि 'श्रीतपती यशचंन्द्रिकाम्Ó।।

प्रथम पूज्य भगवान गणेशजी को नमस्कार करके एवं सरस्वती देवी को प्रमाण कर संपूर्ण मनोकामनाओं की देने वाली हिमलापुत्री भगवती पार्वती माता की मैं वंदना करता हूं। उमापति भगवान सर्वव्यापी शंकर को वंदन करता हूं जो चंद्रमा को शिर पर धारण करने वाले, मृड, रुद्र और शूलपाणि, महेश्वर नाम वाले हैं। जो मत्स्य, कच्छप वाराह और नृसिंह, वामन तथा गज का उद्वार करने वाले श्रीहरि, परशुराम, श्रीराम आदि अवतारधारी है, उन संपूर्ण जगत के एकमात्र गुरू श्रीकृष्ण प्रभु को मैं वंदन करता हूं। आदिकवि प्रचेतापुत्र वाल्मीकिजी को वंदन करता हूं जिनकी रामायण की कथा शाश्वत भक्ति को देने वाली है। जो अज्ञान के गहरे अंधेरे को अपनी विलक्षण प्रज्ञाशक्ति के द्वारा विनाश करने वाले हैं, उन श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी को मैं नमन करता हूं। अंजना माँ के लाल, वानरों के स्वामी, चिन्मयस्वरूप, भक्ति के प्रत्यक्ष अवतार रामभक्ति को समर्पित बुद्धि वाले श्री हनुमान जी की मैं वंदना करता हूं। गंगा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी आदि नदी रूप धारिणी देवियों को मैं प्रणाम करता हूं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि देव व राहु-केतु इन नवग्रहों को प्रमाण करता हूं। ये नवग्रह मेरी दुरावस्था दूर करें। मैं भाष्कर श्री सम्प्रदाय के आचार्य रामानुजस्वामी एवं रामानंद स्वामी के चरणों में प्रमाण करता हूं। रुद्र मताचार्य विष्णुस्वामी व सनकमताचार्य निम्बार्क महाप्रभु के चरणों वन्दन करता हूं। जो सोये हृदयों को श्रीकृष्ण शरणं का मंत्र देकर जगाते हैं, ऐसे श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु के चरणों में बारम्बार प्रमाण करता हूं। मैं विश्वामित्र नामक अधोक्षज भगवान श्रीविष्णु की भक्ति की अभिलाषा से विष्णुकला रूपा भगवती तपती के अद्भुत चरित्र को कहता हूं। ये दिव्य तपती उपाख्यान पहले महाभारत में महामुनि व्यासजी ने कहा था। अब पुन: मैं विश्वामित्र इसका 'श्रीतपतीयशचन्द्रिकाÓ नाम से सम्पादन करूंगा।

।। अथ प्रथमोऽध्याय:।। एकदा हिमगिरिवर्ती ऋषिसंघ:प्रसन्नधी:। सह्याद्रि गिरि सान्निध्ये आगमत् भगवत्परा:।। तत्रऽपश्यन् महत्पुण्यं उत्सवमति विस्मयम्। देवमुनि गंधर्व किन्नर नाग सिद्ध सचारणा:।। सर्वेभक्तिपरा तत्र महाभाव समन्विता। मन्दमन्द ववर्ष जलधर दिव्य धार महामुदा।। गन्धैपुष्पाक्षतैर्दिव्यै धूपैभि: दीपमालिका। स्तोत्रैर्बहुभिर्दिव्यै सूर्यतनयानुतोशयत्।। गीत वाद्यैर्विविधै अप्सरा नर्तयन मुदा। तद्वीक्ष्य संकीर्तनादिं जातं कौतूहलं परम्।। एक बार हिमालय-क्षेत्र में रहने वाले ऋषियों का समूह तीर्थाटन करता हुआ भगवान श्रीनारायण की भक्ति में लीन मध्य भारत में अवस्थित सह्याद्रि पर्वत के वन प्रदेश में जैसे ही आया, तो वहां उन्होंने एक अद्भुत पुण्यशाली उत्सव देखा जिसमें देवता, गन्धर्वगण, किन्नर समूह, नागगण, सिद्धगण, चारणों के समूह और मनुष्यों के झुण्ड सभी को भक्ति के भाव-प्रवाह में निमग्र देखा। आकाश में बादल भी भावविभोर होकर दिव्य जल की धीमी-धीमी फुहार छोड़ रहे थे, और भक्तों का समूह गन्ध, अक्षत व धूप दीपमाला द्वारा पूजन कर रहा था। सिद्ध चारण दिव्य स्त्रोतों के द्वारा भगवती सूर्यपुत्री तपती की स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व गण अनेक प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाकर ललित कण्ठ से उनकी कीर्ति का गान कर रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। उस दिव्य नृत्य, संकीर्तन आदि युक्त उत्सव को देखकर आर्यावर्त के हिमालय के तपोवन वासी उन ऋषियों को बड़ा कौतूहल हुआ। तत्रागतो देवर्षि वीणापाणि परंमुद:। तमभिवाद्य ऋषय: परिपपृच्छोत्सव कथा।। क देशात्र भगवन् कस्य महिमा गरीयसी। कस्येदं महापूजा हेतु काऽस्य प्रयोजनम्।। एवं पृष्टोऽव्रवीत सम्यग् यथावदृषिनारद:। वाक्यं कथामहापुण्यं तपती चरितमाश्रयम्।। ।। श्रीतपतीयशचंद्रिकायां विश्वामित्राचार्येण सम्पादित: अनूदितश्च मंगलाचरणपूर्वके कथारंम्भे प्रथमोऽध्याय: संपूर्ण:।।

उसी समय वहां हाथों में वीणा लिए देवर्षि नारद जी का शुभगमन हुआ। आर्यावर्तवासी उन समस्त मुनियों ने नारदजी का अभिवादन किया और उस दिव्य महोत्सव के बारे में अपना जिज्ञासायुक्त प्रश्र नारदजी से किया। भगवन्! ये ऐसा पुण्यशाली कौन सा देश है? यहां किस देवता की यह विशेष महिमा है? यह किसकी महापूजा है और इसका हेतु या प्रयोजन क्या है? इस प्रकार उन मुनियों के प्रश्र सुनकर कुशल वक्ता नादजी महान् तपती-चरित्र का आश्रय लेते हुए ये वचन बोले। ।। श्री तपतीयशचंद्रिका का आचार्य विश्वामित्र द्वारा सम्पादित एवं अनूदित मंगलाचरणपूर्वक कथा-आरंभ का पहला अध्याय पूर्ण हुआ।

।। अथ द्वितीयोऽध्याय:।।

तपत्युद्गमस्थलएष सह्याद्रिपुण्याख्यक:। तपती सूर्यसुता अत्र देवी हरिहरात्मका:।। मनस्ताप तपस्ताप वचस्ताप मुनीश्वरा:। अर्चनात् मज्जनातत्र अस्याश्रये व्यपोहतु।। आषाढ़ शुक्लासप्तम्यां तपत्यवतार वासरे। पूजयेत् विवुधास्तेषां तपति जन्ममहोत्सवे।। अद्यास्मिन् महापर्वे भगवति तपति सन्निधम्।। यद्दुष्ट्वा विस्मयं जातस्त्वं स एष तपोधना:।। एतच्छुत्वा मुनिसर्वे नारदस्य मुखात् प्रियम्। चित्राश्रोतुं कथास्तत्र परिबु्रवस्तपस्विन:।।

हे मुनिश्वरों! यह सह्याद्रि पर्वत (सतपुड़ा) का पुण्यमय सुंदर वन है और सूर्यपुत्री भगवती तपती का (नदी रूप में) उद्गम स्थान है। हे ऋषिश्रेष्ठो! ये भगवती तपती साक्षात् श्री विष्णु और रुद्ररूपा हरिहरात्मका परादेवी है जो मन, शरीर और वाणी से उत्पन्न संपूर्ण पाप-ताप का समूल उच्छेद (निवारण) करके शाश्वत आनंद का दान करती हैं। हे मुनिश्वरो! इनका पूजन करने, इनकी शरण लेने तथा इनके पुण्यशाली जल में स्नान करने से संपूर्ण पाप-ताप का विनाश हो जाता है और परम निर्मल स्वरूप प्राप्त होकर ब्रम्हाप्राप्ति हो जाती है, अर्थात् जीव को अपने स्व का साक्षात्कार हो जाता है। निष्पाप ऋषिगण! अषाढ़ शुक्ल सप्तमी भगवती तपति का भूतल पर अवतार दिवस है। इस अतिदिव्य पुण्यकाल में देवगण भगवती तपती की पूजा करके उनका दिव्य जयंती महोत्सव मनाते हैं। इस समय ये भगवती प्रत्यक्ष होकर भक्त-पूजकों को अपना दिव्य र्दान और सानिध्य लाभ प्रदान करती है। हे हिमगिरीवासी मुनिश्वरों! ऐसा यह महोत्सव है जिसे देखकर आपको आश्चर्य हुआ है। नारदजी के मुख से ऐसे प्रिय वचन सुनकर सारे ऋषीगण इस अद्भुत कथा को सुनने की तीव्र उत्कंठा लेकर नारदजी से बोले...!

ब्रम्हापुत्र नमस्तुभ्यं नामकीर्तन कलाधर:।

भगवच्छ्रोतु मिच्छाम: तपती चरितमद्भुतम।। तच्छुत्वा नारदोयोगी हृष्टमन: प्रसन्नधी:। तस्मिन् सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम्।। अन्न पश्यन् ते चित्रं पूजा दिव्यं महोत्सवम्। ग्लानिर्गलित राजर्षि जन्मेजय सर्पहिंसनात्।। तक्षकदंशात् पंचत्वं प्राप्तं राजापरीक्षित:। तज्ज्ञात्वां तु जन्मेजय सर्प सत्र तदाऽकरोत्।। तत: कर्म प्रवृत्ते सर्प सत्र विधानत:। पर्यक्रामश्च विधिवत् स्वे-स्वे कर्मणि याजका:।।

हे ब्रम्हाजी के मानसपुत्र नारदजी! आपको नमस्कार है। हे नारायण नाम संकीर्तन कलाधर! भगवन् हमारी श्री भगवती तपती के अद्भुत चरित्र को सुनने की अभिलाषा है। प्रभो! हमें यह परम पुण्यमय दिव्य कथा सुनाईये। ऋषियों का ऐसा प्रश्र सुनकर नारद जी का मन प्रसन्न हो गया। वे उस स्थान पर विस्तार से परम दिव्य कथा का प्रवचन करने लगे। नारदजी बोले- तपोधनो! अभी जो आश्चर्यमय पूजोत्सव आप लोग देख रहे थे, यह सर्पो का विनाश करने से उपजी राजर्षि जन्मेजय की ग्लानि को दूर करने और उन्हेें निष्पाप बनाने को भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यासजी की प्रेरणा से राजर्षि जन्मेज्ञय के द्वारा महान तपती-पूजन का दिव्य आयोजन था। सर्पों के महाविनाश से उपजी अंतगर््लानी में गलते हुए राजा को ताप रहित करने भगवान व्यास की प्रेरणा से यहां यह उत्सव चल रहा था। मुनिवरो! जब श्रृंगी के शाप से तक्षक नाग ने राजा परीक्षित को डसा और उनकी मृत्यु हो गई, तब उनके पुत्र राजर्षि जन्मेजय ने क्रोध में भरकर उत्तंक ऋषि के आचार्यत्व में महान सर्प विनाशी यज्ञ का आरंभ किया। यज्ञ में सभी ऋत्वजगण अपने-अपने काम में लग गए।

प्रावृत्य कृष्णवासांसि धूम्र संरक्तलोचना:। जुहुवुर्मंत्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम्।। कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणां मनांसि च। सर्पानाजुहुवस्तत्र सर्वानग्रिमुखे तदा।। तत: सर्पा: समापेतु: प्रदीप्ते हव्यवाहने। विचेष्टमाना: कृपण माह्वयन्त: परस्परम्।। विस्फुरन्त: श्वसन्तश्च वेष्टयन्त: परस्परम्। पुच्छै: शिरोभिश्च भृशं चित्रभानु प्रपेदिरे।। श्वेता: कृष्णाश्च नीलाश्च स्थविरा शिशवस्तथा। नदन्तो विविधान्नादान् पेतुर्दीप्ते विभावसौ।।

सभी ऋत्विज यजमान सहित क्रोध से लाल नेत्र वाले काले वस्त्र पहन कर मंत्रोच्चारणपूर्वक या में आहुति दे रहे थे। वे सर्पों के हृदय में कंपन पैदा करते हुए नाम ले-लेकर अग्रि के मुख में आहुति डालने लगे। इसके बाद मंत्र आकर्षण के प्रभाव में आकर सर्पगण तडफ़ड़ाते हुए और दीन स्वर में एक-दूसरे को पुकारते हुए प्रज्जवलित अग्रिकुण्ड में टपाटप गिरने लगे। वे उछलते, लम्बी-लम्बी श्वांस लेते, पूंछ और फनो से एक-दूसरे को लपटते हुए उस धधकती आग में अधिकाधिक संख्या में गिरने लगे और भस्म होने लगे। सफेद, काले, नीले और बूंढे-बच्चे सभी प्रकार के सर्प अनेको प्रकार से चीत्कार करते हुए जलती हुई होमाग्रि में विवश होकर गिरने और भस्म होने लगे।

क्रोशयोजन मात्राहि गोकर्णस्य प्रमाणत:। पतन्तत्यजस्रं वेगेन वह्महावग्रिमतांवर।। एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्वुदानि च। अवशानि विनष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै।। तुरगा इव तत्रान्ये हस्ति हस्ताइवापरे। मत्ता इव च मातंगा: महाकाया: महाबला:।। उच्चावचाश्च बहवो नानावर्णा: विषोल्वणा:। घोराश्च परिघाप्रख्या दन्दशूका भयंकरा:।। प्रपेतु रग्नावुरगा: मातृवाग्दंड पीडि़ता:।। ।। श्रीतपतीयशचंद्रिकायां विश्वामित्राचार्येण सम्पादित: अनूदितश्च द्वितीयोऽध्याय: संपूर्ण:।।

कोई-कोई एक कोस लम्बे तथा कोई चार कोस लम्बे, कोई केवल गाय के कान जैसे प्रमाण वाले सर्प बड़ी तेजी से अग्रिकुण्ड में भस्म हो रहे थे। इस प्रकार लाखों, करोड़ों-अरबों सर्प मंत्राकर्षण से विवश होकर नष्ट हो गए। कुछ सर्पों की आकृति घोड़े की सी, किसी की हाथी की सूंड की सी, मतवाले हाथी जैसे विशाल नाग, भयंकर विष वाले छो-बड़े अनेको सर्प अपनी माता के शापदण्ड से स्वयं ही आग में गिर रहे थे। ।। श्रीतपतीयशचंद्रिका का आचार्य विश्वामित्र द्वारा सम्पादित एवं अनूदितयह दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।

।। अथ तृतीयोऽध्याय:।। जरत्कारू सुतं मुनिवर आस्तीक नाम महाद्विज:। तस्य प्रयासेन तत्र स सत्र विरराम ह।। यज्ञात्विरत राजर्षि पारीक्षित महात्मना। दुष्ट निर्दुष्ट बहव सर्पहिंसात उपरमत।। सर्पहिंसाजन्य ग्लानिर्महती निर्वेद कारिका। अस्वस्थ मनस: राजा द्वैपायनं प्रति ययौ।। निवेदयत्तं क्षिप्रं आत्मनिर्वेद कारणम्। तस्य दु:खोच्छेदनार्थ भगवान् व्यासऽव्रवीत् वच:।। तपं हरति सर्वान् यज्जातो येन केनपि। तस्मात् वयमव्रजन राजा मार्तण्डतनयाश्रये।। एतत् महोत्सवं दिव्यं यद्दृष्ट्वा त्वयानघ:।। व्यासप्रोक्तं तत्सर्वं राजर्षिणां महोत्सव:।।

मुनिवरो! जरत्कारु का पुत्र आस्तीक नाम वाला महान सत्व संपन्न ब्राम्हण बालक था। उसके ही प्रयासों से वह महासर्प विनाशी यज्ञ बीच में ही बंद हो गया और वासुकि, तक्षक आदि नागों की रक्षा हुई। दोषी-निर्दोष सभी सर्पों की महान् हिंसा से राजा जन्मेजय के हृदय में अत्यंत ग्लानि हुई। उसी कुण्ठा से कुण्ठित राजर्षि जन्मेजय अधीरतापूर्वक भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के समीप गए और अपना दुख निवेदन किया। उनके दुख निवारण को भगवान व्यास बोले- वत्स! संसार में संपूर्ण पाप-ताप का निवारण भगवती तपती की शरण ग्रहण करने से हो जाता है; चाहे वह ताप किसी भी निमित्त उत्पन्न हुआ हो। इसलिए हे राजर्षि! हम सभी उन्हीं सूर्यपुत्री तपती के आश्रय में चले। नारदजी कहते हैं, हे मुनीश्वरो! अभी आपने जो महान पूजन-उत्सव देखा वह तपती जयंती के अवसर पर व्यासजी के निर्देशानुसार राजर्षि परीक्षितनंदन जन्मेजय द्वारा तपती पूजन का ही दिव्य दर्शन है।

तच्छुत्वा नारदात् दिव्यमाख्यानमत्यद्भुतम्। भगवन् श्रोतुमिच्छाम: पुण्यां पापमलापहम्।। तत: प्रसन्नात्म देवर्षि कथारम्भ्यामृतं गिरा। आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्ततम्।। ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम्। असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम्।। परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम्। मंगल्यं मंगलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम्।। नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचर गुरुं हरिम्। महर्षे: पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मन।। प्रवक्ष्यामि परमं पुण्यं श्रीतपतियशचंद्रिकाम्।।

श्री नारदजी के मुख से ये उपाख्यान सुनकर ऋषियों ने एकमत से कहा- भगवन! अब हम भगवती तपती और उनसे संबंधित पूर्ण इतिहास जो परम पुण्यशाली और समस्त पाप-कल्मष का हरण करने वाला है, उसे सुनना चाहते हैं। इस प्रश्र पर नारदजी आनंदित हो गए और अपनी अमृतमयी वाणी से भगवान श्रीहरि को प्रमाण सहित मंगलाचरण आरम्भ करते हुए दिव्य कथा का शुभारंभ कर दिया। जो सबका आदि कारण है, अन्तर्यामी सर्वनियन्ता यज्ञ का एकमात्र आवाहित यज्ञभोक्ता पुरूष जिसकी अनेक पुरूषों द्वारा 'पुरूष-सूक्तÓ आदि दिव्य सूक्तो से स्तुति की जाती है, जो ऋत (सत्य) एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा) निराकार व साकार स्वरूप एवं सनातन है। जो सत-असत एवं दोनोंरूप में विराजमान है फिर भी जिनका स्वरूप वास्तविक रूप सत और असत् दोनों ही से विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो संपूर्ण परावर (स्थूल-सूक्ष्म) जगत का रचयिता पुराण पुरुष सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं क्षय-वृद्धि से इन विकारों से सर्वथा रहित है जिसे पाप कभी छू भी नहीं सकता जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय श्रीविष्णु है। उन्हीं चराचर गुरु हृषीकेश (मन और इंन्द्रियों के प्रेरक) श्रीहरि को नमस्कार करके सर्वलोक पूजित परम पुण्यमय भगवती श्री तपती के यश की मंगलमयी ज्योत्सना (कथा) का वर्णन आप सब आर्यावर्तीय ऋषियों से करूंगा।

निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृत्ते। बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम्।। युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्द्विव्यं प्रचक्षते। यस्मिन् संश्रयते सत्यं ज्योतिब्र्रह्म सनातनम्।। अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतांगतम्। अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तद् सद्सदात्मकम्।। यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेक: प्रजापति। ब्रह्मा सुरगुरू: स्थाणुर्मनु: क परमेष्ठयध।। प्राचेतसस्तथा दक्षोदक्षपुत्राश्च सप्त वे। तत: प्रजानांपतय: प्राभवन्नेकविंशति।।

सृष्टि के आरंभ में जब जगत् में वस्तुविशेष या नामरूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नामोनिशान नहीं था, सब ओर अंधकार ही अंधकार था, उस समय एक बड़ा सा अण्डा प्रकट हुआ, जो संपूर्ण चराचर प्राणी-प्रजा वर्ग का बीज रूप ही था। ब्रम्ह कल्प के आदि में उस अविनाशी सनातन बीजादण्ड को चारों प्रकार (स्वेदज, उद्भिज, अण्डज, जरायुज) के प्राणी का कारण कहा जाता है जिसमें सत्य स्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रम्हा अंतर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति कहती है- तत् स्रष्टा तदेवानु प्राविशत्।ÓÓ वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यक्त सूक्ष्म कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है। जो कुछ सत-असत रूप में दिखता है, वह सब भी वही है। उस अण्ड से ही प्रथम देहचारी प्रजापालक प्रभु, देवगुरू पितामह ब्रह्मा तथा स्थाणु रुद्र, मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र, दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए। फिर इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) उत्पन्न हुए। पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदु:। विश्वेदेवास्तथादित्या: वसवोऽथाश्विनावपि।। यक्षा: साध्या: पिशाचचाश्च गुह्यका: पितरस्तथा। तत: प्रसूता: विद्वांस: शिष्टा: ब्रह्मर्षि सत्तमा:।। राजर्षयश्चबहव: सर्वे समुदिता गुणै:। आपो द्यौ पृथ्वी वायुमन्तरिक्षं दिशिस्तथा।। संवत्सरर्तवो मासा: पक्षाहोरात्रय: क्रमात्। यच्चान्यदपि तत् सर्वं सम्भूत लोक साक्षिकम्।। यदिदं दृश्यते किंचिद् भूतं स्थावर जंगमम्। पुन: संक्षिप्यते सर्वं जगत् प्राप्ते युगक्षये।। जिन्हें मत्स्य, कूर्म वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, कृष्ण आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषि मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्णु रूप परमपुरूष और उनकी विभूति रूप विश्वदेव, आदित्य, वसुगण एवं अश्विनीकुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। इसके बाद यक्ष, साध्य, पिशाच, गुह्यक और पितर एवं तत्वज्ञानी, सदाचार-परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का उद्भव हुआ। वे सबके सब शौर्य-पराक्रम आदि सद्गुणों से संपन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, घुलोक, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष और दिशाएं उत्पन्न हुईं। सम्वत्सर, ऋतुएं, मास, पक्ष, दिन तथा रात का प्राकट्य भी क्रमश: उसी से हुआ। इसके सिवा और भी जो देखा-सुना गया है, वह सब भी उसी अण्डे से उत्पन्न हुआ है। यथर्तावृतुलिंगानि नानारूपाणि पर्यये। दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु।। एवमेतदनाद्यन्तं भूत संहार कारकम्। अनादि निधनं लोके चक्रं सम्परिवर्तते।। त्र्यस्त्रिंशत्सहस्राणि त्र्यस्त्रिंशतानि च। त्र्यस्तिंशच्च देवानां सृष्टि संक्षेप लक्षणा।। दिवपुत्रोबृहद्भानुश्चक्षुरात्मा विभावसु:। सविता स ऋचीकोऽर्को भानुराशवहोरवि:।। पुरा विवस्वत: सर्वे मह्यस्तेषां तथावर:। देवभ्राट् तनयस्तस्य सुभ्राडिति तत: स्मृत:।। जैसे ऋ तु के आने पर उसके फल-पुष्प नाना प्रकार के ऋतु चिन्ह प्रकट होते है और ऋ तु बीत जाने पर सब समाप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार कल्प का आरंभ होने पर पहले की तरह ही सारे पदार्थ स्वत: उदित दृष्टिगोचर होते और समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त कालचक्र लोक में प्रवाहमान निरंतर घूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पत्ति, पालन और संहार हुआ करता है। पर अनादि कालचक्र का कभी विनाश या उद्भव नहीं होता, यह सनातन है। देवताओं की सृष्टि क्रमश: संक्षेप से- तेतीस सौ, तेतीस हजार और तेतीस लाख होती है। पूर्वकाल में द्विपुत्र बृहत् भानु चक्षु, आत्मा , विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह तथा रवि ये सब शब्द भगवान विवस्वान के बोधक माने गए हैं। इन सबमें जो अन्तिम रवि हैं, वे मह्य (मही=पृथ्वी में गर्भ स्थापन करने वाले) अथवा पूज्य माने गए हैं। इनके पुत्र देवभ्राट के पुत्र सुभाट् मान्य हुए हैं। सुभ्राटस्तु त्रय: पुत्रा: प्रजावन्ती बहुश्रुता:। दशज्योति: शतज्योति: सहस्रज्योति रेव च।। दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतिर्महात्मन:। ततोदशगुणाश्चान्ये शतज्योतिरिहात्मजा:।। भूयस्ततो दशगुणा: सहस्रज्योतिष: सुता:। तेभ्योऽयं कुरु वंशश्च यदूनां भरतस्य च।। ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वश:।

सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गा: सुविस्तरा:।।

।। श्रीतपतीयशचंद्रिकायां विश्वामित्राचार्येण सम्पादित: अनूदितश्च तृतीयोऽध्याय: संपूर्ण:।। सुभ्राट् के तीन पुत्र हुए, वे सभी संतानवान थे और वे अनेक शास्त्रों के ज्ञान से पूर्ण थे। उनके नाम हैं- दशज्योति, शतज्योति एवं सहस्र ज्योति। दशज्योति के दस हजार पुत्र हुए, शतज्योति के इनसे दसगुने पुत्र हुए और सह्रज्योति के उससे भी दस गुने पुत्र हुए। इन्हीं से ये कुरुवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकु के वंश तथा और भी राजर्षियों के सभी वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्परा और बहुत से वंश भी इन्हीं से विस्तार को प्राप्त हुए हैं। ।। श्रीतपतीयशचंद्रिका का आचार्य विश्वामित्र द्वारा सम्पादित एवं अनूदित यह तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ।।

।। अथ चतुर्थोऽध्याय:।। एषा सूर्यसुता तपति चंद्रवंशवधू शुभा। तस्या तनय धर्मात्मा कुरुदेवमितिश्रुत:।। क्षेत्रं तस्य धर्मक्षेत्रं कुरुक्षेतंसुविश्रुत। समन्त पंचकतीर्थ यज्ञ पापमलापहा।। समन्त पंचकमिति यदुक्तं नारद मुखात्। एतत् सर्वं यथा तत्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्।। श्रृणुध्वं मम भो विप्रा व्रुवतश्च कथा शुभा। समन्त पञ्चकाख्ये च श्रोतु मर्हत सत्तमा।। त्रेता द्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्र भृतांवर। असकृत पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्ष चोदित:।।

माँ सूर्यपुत्री ताप्ती महीमा श्री तपती यश चन्द्रीका लेखक एवं रचियता पंडित डॉ अशोकाचार्य विश्वामित्र जी महाराज गोर्वधन मथुरा उतरप्रदेश वेब पोर्टल पर महीमा लेखन सहयोगी पंडित संजय शुक्ला बैतूल मध्यप्रदेश