User:Swanandbaba
स्वानंद बाबा जी का जीवन चरित्र
[edit]अनगढ़ मत हे पुरो का, यहां न काम धतुरों का । कचड़ा और माट मैला रस्ता झूठे कायर कूरो का ।। निर्भय, साफ अमीरी रस्ता सच्चे साहेब सूरों का । मुश्किल अगम पंथ का चलना जैसे खांडे छूरों का ।। अजगैबी यह मता मनाया भेठिक थकना चूरों का || जप - तप करके स्वर्ग कमाया सो तो काम मजूरों का ।। करना सही न लेना कुछ भी बना झाखर झूरों का | बड़ो देव गादी जब पाई तब क्या ढ़ोना घूरों का । मस्त हुआ जब अनहद सुन के क्या सुनना तुरों का ।।
प. पू. स्वानंद बाबा उपरोक्त पंक्तियों का भावार्थ है - पूर्ण पुरषों संतों का मत अनगढ़ है, किसीने इसको गढ़ा नहीं है, अर्थात इसे नियम, आचार पद्धति इत्यादि से जकड़कर, खरीदकर तैयार नहीं किया गया है । इस मत में बच्चों का, ठगों का ,धतूरे बाज धूर्तों का काम नहीं है । कायर, क्रूर और झूठों का मार्ग कीचड़ से पटा पड़ा है । जबकि सत्पुरुषों, वीरों अवं इन्द्रियजीतों का मार्ग ही राज मार्ग है । इनका मार्ग भय और बाधा से मुक्त और स्वच्छ है । परंतु इस मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने से कम नहीं। इस संत - मंत को, इस भागवत-मत को अजगैबी पुराण -पुरुष स्वयं भगवान ने ही संत रूप यानि नारायण ऋषि के रूप से तपस्या कर प्रचलित किया है और इसके भेदिए अर्थात रहस्य - ज्ञाता ऐसे लोग है जो उसी आनंद यानि स्व : आनंद में मस्त है अस्तु स्वानंद है । अपनी मस्ती मैं चकनाचूर है और अपने अस्तित्व तक को मिटा चुके हैं । और जप-तप करने से यदि किसी को स्वर्ग की प्राप्ति हो भी गई तो कोई विशेष उपलब्धि नहीं है क्योंकि ये तो उसे मजूरी (पारिश्रमिक) स्वरुप मिलना हैं ।
परन्तु झांखर-झूरों खरे संतो का बाना तो यह है कि करेंगे सही ( जप - तप कृत्य सब कुछ ) किंतु लेंगे कुछ नहीं यानी कर्मफल का त्याग करेंगे । और यही मार्ग सर्वोत्तम भी हैं । जब ऊँची गादी प्राप्त हो गई, निष्काम संतोष के सिंहासन पर अभिषिक्त हो गए तब कूड़ा क्यों ढोए ? जब अनहत संगीत की मस्ती छा गई तब नफीरी की तान कौन सुनता हैं ? परम पूज्यनीय ब्रम्हलीन सदगुरू स्वानंद इन पंक्तियों में परिभाषित लक्षणों से भी कही अधिक तत्सुख भाव में तल्लीन संत रहे है | तभी तो गोदावरी तट पर रामकुंड में जब कुण्डलिनी रूपा महाशक्ति ने स्वयं मोहिनी रूप में साधना रत बाबा को दस्तक दी तो उन्हें सिद्धि को ठुकराने में निमिष मात्र का भी समय नहीं लगा | इस रहस्य को जानना जड़ भाव में विद्यमान आड़म्बरियों के बस का काम नहीं |
जब तक कुण्डलिनी रूपा महाशक्ति सत्यमार्ग को ढंककर घोर सुषुप्ति में निमग्न है तब तक जिव जड़ भाव में अवसन्न होकर, मिथ्या के प्रकोप और माया के प्रलोभन में मोहिनी शक्ति को ही अपना सर्वस्व मानने की चुक करता है | कुण्डलिनी के जागते ही जिव की घोर निद्रा टूट जाती है और वो अपने स्वरुप दर्शन में समर्थ होता है | पूर्ण जाग्रति से जिव जड़त्व का परिहार कर शिव को प्राप्त करता है | और उसकी अन्तर्निहित महाशक्ति जागृत परशिव के साथ मिलन के लिए दौड़ पड़ती है | अवश्य ही शिव शक्ति के इस मिलन के लिए दीर्घकाल की आवश्यकता है आत्मदर्शन हुए बिना इस मिलन का सुत्रपात नहीं होता और बिना सम्यक भाव आए ये आत्मदर्शन नहीं होता | शिवशक्ति मिलकर एक अद्वय ब्रम्हरूप में प्रकाशित होने पर ब्रम्हरूप का प्रारंभ होता है और इसके बाद ही असंख्य अवस्थोसे होकर ब्रम्हामार्गी को पारब्रम्ह की अप्राकृत नित्यलीला में प्रवेश का अधिकार होता है | इस लीला में ही लीला से अतीत ,निरंजन और निष्फल तत्त्व का अथवा तत्वतित संधान का आभार दीप प्राप्त होता है | इस अवस्था में स्थित हो |
प. पू . स्वानंद बाबा के अनुसार ब्रम्हामार्गी पहले सत्य , रूप , चिदघन रूप ततपश्चात आनंदमय सत्ता के रूप में ब्रम्हाविकास पाता हैं | बाबाजिने कुण्डलिनी जागरण के पश्श्चात सिद्धि को ठोकर मार दी और सत्य में स्थित हो अपने सतगुरु प. पू. गीतानंद सरस्वती में साद्ध्य शान्तपद पर प्रतिष्टित होकर वे घोर कल्लोलमय मायातारंग के उच्चाबिंदु पर स्थित हुए | इस अवस्था की प्राप्ति और आत्मदर्शन की सूचना से चैतान्यभाव का उन्मेष हुआ , तदन्तर शिवशक्ति के मिलन की अवस्था से आनंद का सूत्रपात हुआ | शिवशक्ति का मिलन पूर्ण होकर ब्रम्हाभाव में होनेवाली प्रतिष्ठा को ही लौकिक भाषा में ब्रम्हानंद कहते है | और ब्रम्हामार्गी स्वत : सत्य में स्थित हैं | अतः सतगुरु स्वानंद बाबा को कुण्डलिनी जागरण के बाद गुरु के द्वारा "स्वानंद " नामकरण प्राप्त हुआ | जो साधना बल से , पूर्व पुण्य के प्रभाव से , सतगुरु के कृपा कटाक्ष से नित्य लीला से पार निरंजन पद को भेद परम भाव को प्राप्त है वही निरंतर जगत का कल्याण करनेवाला संत या साधू कहलाने का पात्र है | इस पद की तुलना में देवयोनि भी तुच्छ है | अतएव बाहरी अथवा भीतरी किसी भी लक्षण के द्वारा वास्तविक सत्पुरुष यथार्थ का परिचय नहीं दिया जा सकता | इसीलिए तुच्छ चमत्कारिक घटनाओ , वेश - भूषा,भौतिक व्यवहार के वर्णन के पचड़े में पड़ना यहाँ अनर्गल होगा | क्योंकि स्वयं संत कबीर कहते हे , जाती न पुछो साधू की ,पूछ लीजिए ज्ञान | और सार - सार को गहि रहो , थोथा दें बहाय | फिर भी गृहस्थो की जानकारी के लिए जन्म संत मार्ग पर प्रयाण और जनसाधारण की नजरो में दिखाई देनेवाली कुछ जानकारियो का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है, श्री स्वानंद बाबा का जन्मपद जौनपुर में सिंगारामाऊ के पास स्थित ग्राम भुला में तिथि (प्रदोष संवत १९७५ )सन १९१८ में हुआ था | आपका परिवारवालों ने नामकरण किया था श्री राजनारायण मिश्र | अपने गृहस्थ उत्तरदायित्वों को पूर्ण कर १९६३ में आप परिवार को त्यागकर परम सत्य की खोज में देशाटन पर निकले |
परिवारवालों से आपने साफ़ शब्दों में कह दिया की मुझे खोजने और मिलने का प्रयास न किया जाये क्योंकि में आपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो चूका हूँ | लगबग एक दशक तक आप देशाटन कर तमाम मठों , तीर्थो , कथाओ , सत्संगों का अनुभव प्राप्त करते रहे| आप स्वयं बताते थे के इस दौरान आपने साधुवेश की खाल ओढे सैकड़ो आदम्बरियों और ढोंगियों को सबक सिखाया | सत्तर के दशक में आप नासिक स्थित रामकुंड तीर्थ में साधना रत हुए | आगे अजगर बाबा की समाधी को अपना बसेरा बनाया | यही आपकी कुण्डलिनी जागृत हुई और आपने प. पु. गीतानंद सरस्वती जी से मित्रवत गुरुदीक्षा ली | गुरु आज्ञा प्राप्त कर अपने घोर तपस्या के लिए ठाणे (महाराष्ट्र) के जव्हार तालुका के पास घनघोर वन को चुना ताकि अनजानी भाषा से साधना में कोई बाधा न पैदा हो | करधन और धेंगाची बेठ नामक गाँव के पास आपने लगभग डेढ़ दशक तक तपस्या की | बाद में ठाणे पश्चिम स्थित येऊर पहाड़ पर १९८७ में तपस्या करने आये | वहा आपने अपनी पर्णकुटी तैयार की आपने अत्यंत साधारण ग्रामीण की वेशभूषा और न्यूनतम साधन सामग्री में अपनी साधना जारी रखी | इसी दौरान शेर से गाय की रक्षा , मृतुतुल्य पीड़ा से कराह रहे आदिवासी को दृष्टिमात्र से स्वस्थ कर देने , संतान प्राप्ति के लिए एक पत्रकार द्वारा सप्तनिक याचना करने पर उसकी मनोकामना पूर्ति , सर्पदंश , से मृत आदिवासी सेवक के निष्प्राण पुत्र को चेतना प्रदान करने जैसी घटनाओ से आपकी कीर्ति फैलने लगी | परन्तु आप इन घटनाओ की चर्चा से बचते थे और किसी ने यदि इस प्रचारित करने का प्रयास भी किया तो तत्काल फटकार देते थे | जैसा की संतो के साथ होता है, दुर्जनों पर समय नष्ट नहीं किया |
पर समय साक्षी है की ऐसे विघ्नसंतोषियों का अनिष्ट हुआ | चूँकि बाबा जी शत्रु - मित्र और सुख - दू:ख की मानवीय वासना से मुक्त थे तथा इसकी चर्चा अनुचित है | आप आधुनिक गुरु - शिष्य परंपरा का अक्सर उपहास कर प्रभु रामचन्द्रजी की अयोद्धया तैयार हो गयी और नगर में कोई बचा तो नहीं यह देखने के लिए दूत दौडाए गए तो दूत एक श्वान के पुरे शरीर में कीड़े बिल - बिला रहे थे और वह अशक्त था | सभी आश्चर्यचकित हुए की जिस रामराज्य में दैहिक - भौतिक - दैविक - त्रिताप प्रतिबंधित हे वहा इस श्वान की ऐसी विकत स्थति क्यों? तो प्रजाजनों के कौतुहल को शांत करने के लिए प्रभु रामचंद्र ने बताया की पूर्व जन्म में उक्त श्वान गुरु था और उसके शरीर को नोचने वाले कीड़े उस जन्म में उसके चेले थे | गुरु ने चेले को किस प्रकार से हित तो किया नहीं पर उन से सेवा ले ली इस कारण रामराज्य में भी उस श्वानयोनी में जन्मे गुरु से चेले कीड़े बनकर अपना रुनानुबंध पूरा कर रहे थे | इस लिए आपकी मान्यता थी की शिष्य उसे ही बनाया जाए और उसी से सेवा ली जाए जिस का कल्याण करना संभव हो | आपने शिष्य बनाकर विधिवत दीक्षा देने की कृपा मुंबई के प्रेम शुक्ल पर की | दुर्गाप्रसाद पाठक परिवार विशेष कर उनकी द्वितीय पुत्री शांति ही आपके व्यवस्थापन आपके शिष्य प्रेम के सहयोग से आपके भौतिक जीवनकाल में भी संभालती रही | आप महाशिवरात्रि संवत २०६० (१७ फरवरी २००४) को समाधिस्थ हुए | आपने अपने भौतिक इहलीला के अंतिम चरण में प्रेम शुक्ल एवं उनके सहयोगियों से अटपटेश्वर महादेव मंदिर और बजरंगबली के मंदिर का निर्माण किया | आपके समाधिस्थल का भी ढांचा निर्मित कराया हे | आप शक्ति उपासक थे और मां गायत्री आपकी इष्ट थी | मां गायत्री मंदिर का भूमिपूजन संवत २०६१ की चैत्र नवरात्री में हो चूका है , मंदिर का निर्माण शीघ्र प्रारंभ होगा| आपने स्वयं बताया था की अपनी अनंत यात्रा के प्रथम वर्ष में आप तमाम तीर्थो एवं पुज्यलोको का भ्रमण दर्शन करने के बाद अपने सुक्ष्म रूप से भक्तो और श्रद्धालुओं का कल्याण प्रारंभ करेंगे| आपका समाधी पर्व ८ मार्च (महाशिवरात्रि ) को पड़ता है | इस अवसर पर आपकी पालखी यात्रा और समाधी महोत्सव एवं महाशिवरात्रि का आयोजन किया जाता हैं |