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User:Sri mukesh

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                                    'सरहद से घर तक'
                                       ~ Cite error: There are <ref> tags on this page without content in them (see the help page).डा.दीप्ति गुप्ता  

(सरहद पर खिंचे काँटों के तार, आम इंसान की उस संवेदना को कभी खत्म नहीं कर सकते, जो अपनी धरती पर, दूसरे मुल्क के किसी बेगुनाह की तकलीफ़ की आहट पाकर अनायास ही उमड़ पडती है, उस सद्भावना को कभी नहीं दबा सकते, जो उसके चेहरे पर पसरे दर्द को देख कर स्पंदित हो जाती हैं.)


            सकीना खाट पर निढाल पडी थी I जमील मियाँ बरसों पुराने टूटे मूढे में धँसे, घुटनों से पेट को दबाए ऐसे बैठे थे जैसे घुटनों के दबाव से भूख भाग जाएगी I कई दिनों से मुँह  में अन्न का दाना नहीं गया था I सकीना  और   जमील मियाँ का  इकलौता बेटा शकूर  युवावस्था की ताकत के बल पर भूख से जंग ज़रूर लड़ रहा था, लेकिन निर्दयी भूख उसके चेहरे पर मुर्झाहट  बन कर चिपक गई थी I भूखे पेट में मरोड़ उठती, तो तीनों थोड़ा-थोड़ा पानी गटक लेते I उनके साथ-साथ उनके उस छोटे से एक कमरे के घर पर भी मुर्दानगी छाई हुई थीI जिस घर में चूल्हा न जले, रोटी सिकने की खुशबू न उठे, वह घर मनहूस और मुर्दा नही तो और क्या होगा I 

तभी कमज़ोर आवाज़ में सकीना शकूर की ओर बुझी आँखों से देखती हुई बोली – ‘बेटा ! अब तो जान निकली जाती है I पड़ोसियों में किसी से कुछ रुपये उधार मिल सके तो, ले आ I’ जमील मियाँ भी कुछ हरकत में आए और सूखे होंठो पर जीभ फेरते बोले – ‘हाँ, बेटा बाहर जाके देख तो, तेरी अम्मी ठीक कहती है, शायद कोई थोड़ी बहुत उधारी दे दे....’ शकूर नाउम्मीदी से बोला - ‘अब्बू ! पड़ोसियों की हालत कौन सी अच्छी है..वे भी तो हमारी तरह फाके मार रहे हैं...... ‘पर बेटा, अल्लादीन भाई ज़रूर कुछ न कुछ मदद करेंगे ‘ - जमील मियाँ उम्मीद का टूटा दिया रौशन करते बोले I

‘या अल्लाह !’ एकाएक कमर में उठते तीखे दर्द को होंठों में भींचती सकीना ने दुपट्टे में मुँह छुपा लिया I बेचारगी से भरे शकूर ने अपने अब्बू- अम्मी पे नज़र डाली I वे दोनों उसे निरीह से गर्दन लटकाए, मौत से सम्वाद करते लगे I शकूर अंदर ही अंदर काँप उठा I उससे अपने माँ बाप के भूख से बेजान चेहरे नहीं देखे जाते थे I उम्र के ढलान पर हर रोज बिला नागा, कदम दो कदम ज़िंदगी से दूर जाते अम्मी-अब्बू, शकूर को भूख की मार से तेज़ी से मौत की ओर लुढकते लगे I उनकी नाज़ुक हालत के आगे वह अपनी भूख भूल गया I वह झटपट अल्लादीन चाचा के घर जाने के लिए उठ खडा हुआ I वह लपक कर अल्लादीन के घर पहुँच जाना चाहता था, लेकिन पैर थे कि जल्दी उठते ही न थे I कई दिनों से पानी पी -पीकर किसी तरह प्राण जिस्म में कैद किए शकूर को लगा कि उसके पाँव कमजोरी के कारण उसकी तीव्र इच्छा का साथ नहीं दे पा रहे हैं I दूर तक रेत ही रेत और रेत के ढूह भी उसे रूखे-भूखे, बेजान से नज़र आए I बस्ती को आँखों से टटोलता जाता शकूर एक झटके से ठिठक गया, उसे लगा कि वहाँ रहने वाले इंसान ही नहीं, घर भी मानो भूख से बिलबिला रहे थे I बस्ती की किस्मत पर मातम सा मनाता वह फिर आगे बढ़ चला I कमजोरी से भारी हुए कदमों से किसी तरह अपने को घसीटता हुआ, शकूर आगे बढता गया, बढता गया I शन्नो को चबूतरे पर मुँह लपेटे बैठे देख वह एक बार फिर ठिठक गया -- ‘क्यों फूफी क्या हुआ ? ऐसे मुँह क्यों लपेट रखा है ?’ शन्नो भूख से कडवे मुँह को बमुश्किल खोलती बोली – ‘जिससे ये मुआ मुँह रोटी न मांगे......’ ये भुखमरे शब्द शन्नो की मुफलिसी बयान कर, शकूर की मायूसी को गहराते हुए, सन्नाटे में गुम हो गए I अधखुले दरवाजों वाले खोकेनुमा मायूसी ओढ़े छोटे-छोटे घर, उनके तंग झरोखे और उनमें से झांकते इक्के-दुक्के चेहरे उन घरों और उनमें रहने वालों की तंगहाली बिन पूछे ही बयान कर रहे थे I वह बस्ती गरीबी की ज़िंदा तस्वीर थी I कहीं-कहीं घरों के बाहर छाया में खटोला डाल कर बैठे, कुछ औंधे लेटे लोगो को देख कर लगता था कि वे एकदूसरे से आपस में उधार लेकर ही नहीं खा रहे, बल्कि ज़िंदगी भी उधार की जी रहे थे मानो I शकूर इन नजारों से निराशा में सीझता-पसीजता आखिर अल्लादीन चाचा के घर पहुँच ही गया I उसने दरवाजे पर हलकी सी दस्तक दी, एक.. दो.. तीन....तीसरी दस्तक पर बेजान दरवाजा चरमराता हुआ एक ओर लटकता सा खुल गया I अंदर हुक्का पीते चाचा बोले – ‘कौन SSS..?’ उत्तर के बदले में अंदर आए शकूर को देख, कर मुहब्बत से छलकते बोले - ‘आ, आ बेटा; कैसा है ? जमील मियाँ और सकीना भाभी कैसी हैं ??’

‘ चाचा SSSSS…’ कहते-कहते शकूर का गला भर आया I फिर किसी तरह अपने पर काबू रखता  बोला – ‘चाचा ! क्या कुछ पैसे उधार मिल जाएगे.... कितने दिन बीत गए, अम्मी-अब्बू  के मुँह में दाना नहीं गया I अब उनकी हालत मुझसे देखी नहीं जाती चाचा..खुदा उन पे रहम करे !‘

इससे पहले कि शकूर आगे कुछ और कहता, अल्लादीन उसे ढाढस बंधाता बोला – ‘ बैठ तो, सांस तो ले ले. अपनी हालत भी देखी है तूने ...? जरा सा मुँह निकल आया है I ‘ अल्लादीन अपनी लंबी झुकी हुई कमर को समेटता उठा और अंदर जाकर टीन का एक पुराना डिब्बा लेकर आया I शकूर को डिब्बा पकडाते हुए उसने कहा – ‘गिन तो कितने पैसे हैं इसमें I’ शकूर ने नम आँखों को पोंछते हुए पैसे गिने - पूरे बाईस रूपए थे I उसे लगा कि इन रुपयों से आए सामान से कम से कम दो-तीन दिन का काम तो चल ही जाएगा I तब तक वह पास वाले हाट में जाकर कठपुतलियों का तमाशा दिखाकर अगले हफ्ते के लिए थोड़ा बहुत तो कमा ही लेगा I शकूर अल्लादीन चाचा का शुक्रिया अदा करता, बिना देर किए परचून की दुकान से आधा किलो आटा, दो रु. की चाय पत्ती, तीन रु. की चीनी, आधा पाव दूध, पाव भर आलू और बचे पैसो के चने-मुरमुरे लेकर घर पहुँचा I उसका मुरझाया चेहरा खाने के कच्चे सामान को देखकर ही चमक से भर गया था I वह ये सोच कर प्रफ्फुल था कि आज कई दिनों के बाद घर में खाने की महक उठेगी, उसके अम्मी-अब्बू रोटी खाकर आज चैन की नींद सोएगें I वह भी आज जी भर के सोएगा और सुबह भी देर से उठेगा I भूखे जिस्म से नींद भी रूठ गई थी I कल वह अपनी कठपुतलियों को साज-संवार कर ठीक करके रखेगा I घर में घुसते ही शकूर अम्मी को बहुत बड़ी नवीद सी सुनाता सा बोला – ‘अम्मी उठो, देखो मैं चून, चाय, चीनी सब ले आया I तुम जल्दी-जल्दी आटा गूंथो, तब तक मैं आलू छीलता हूँ I’ शकूर की जिंदादिल बातें कानों में पड़ते ही सकीना के मुर्दा शरीर में जान सी आ गई I उसने बिस्तर से उठना चाहा किन्तु कमज़ोर जिस्म उसके सम्हालते-सम्हालते भी फिर से ढह गया I जिस्म साथ नहीं दे रहा था, लेकिन खाना पकाने को ललकता मन, इस बार सकीना के जिस्म पर हावी हो गया और वह उठ खडी हुई I दुपट्टा खाट पर फेंक, वह टूटी परात में तीनों के हिस्से का एक-एक मुठ्ठी आटा डालकर पानी के छींटे दे कर गूँथने लगी I इधर खुशी से गुनगुनाते शकूर ने आलू की पतली-पतली फांकें काट कर, उन्हें पानी, नमक और चुटकी भर हल्दी के साथ देगची में डालकर मंद-मंद जलते चूल्हे पर चढ़ा दिया I खाना तैयार होने तक, शकूर ने अम्मी- अब्बू को एक-एक मुठ्ठी मुरमुरे दिए जिससे आँतों से लगे उनके पेट में कुछ हलचल हो, पेट खाना पचाने को तैयार हो जाए I खुद भी मुरमुरो में थोड़े से भुने चने मिलाकर खाने लगा I सात दिन बाद, आज का यह दिन तीनों के लिए जश्न सी रौनक लिए आया था I सब्जी बनते ही सकीना ने जमील मियां और शकूर को गरम - गरम रोटी खाने को न्यौता I दोनों एल्ययूम्यूनियम की जगह-जगह से काली पड़ गई कटोरियों में आलू के दो-तीन बुरके और नमकीन झोल लेकर सिकी रोटी धीरे-धीरे खाने लगे I हफ्ते भर से भूखा मुँह जल्दी- जल्दी कौर चबा पाने के काबिल नहीं था. सो बाप-बेटे आराम से हौले हौले खा रहे थे I शकूर ने एक टुकड़ा अम्मी के मुँह में जबरदस्ती दिया I भूखे पेट माँ रोटी बनाए - उससे देखा नहीं जा रहा था I जमील मियाँ तो एक रोटी के बाद इस डर से मना करने लगे कि इतने दिनों बाद पेट में अन्न जाने पर कहीं पेट में दर्द न हो जाए I लेकिन सकीना और शकूर के इसरार करने पर, उन्होंने डरते-डरते दूसरी रोटी ले ली I उनको दो-दो रोटियाँ देकर, सकीना भी एक पुरानी सी प्लास्टिक की प्लेट में रोटी और एक चमचा सब्जी लेकर खाने बैठ गई I लेकिन पहला कौर मुँह में रखते ही उसकी निष्क्रिय जीभ और बेजान दाँत, सौंधी - सौंधी सिकी रोटी का स्वाद लेने के बजाय टीस सी मारने लगे I किसी तरह एक कौर गले से नीचे उतरा I निर्जीव अंगों के कारण, खाने का जोश आरोह से अवरोह की ओर उतर गया I फिर भी सकीना ने बड़े दिनों बाद चाव से अपना खाना खाया I खा-पीकर तीनों अल्लाह का शुक्र अदा करते और अल्लादीन भाई को ढेर दुआएँ देते, आपस में बातें करते हुए सुकून और उनींदी मिठास के साथ बैठे रहे I तीनों अल्लादीन भाई को दुआ देते न थकते थे I सूखी रोटियाँ और नमक का झोल, जिसमें आलू के बुरके नाम भर के लिए थे - तीनों को शाही खाने से कम नहीं लगे I बहुत दिनों बाद पेट में रोटी गई थी, सो तीनों पर नींद की खुमारी चढने लगी I जब सकीना की आँखें खुली तो देखा कि बाहर अन्धेरा चढ आया था I बस्ती के घरौंदों में रौशन, धुंधली बत्तियाँ टिमटिमा रहीं थीं ! सकीना उठी ! उसने देखा कि लालटेन में इतना तेल न था कि उसे जलाया जा सकता I उसने मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाई और उनकी कोठरी मरियल उजाले से भर उठी, मगर उसमें उभरते तीन चेहरे आज मरियल नहीं थे I


         कुछ साल पहले तक जमील मियां हाट, गली मौहल्ले, मेले आदि में कठपुतली का तमाशा  दिखाते  और शकूर साथ में ढोल बजाकर गाता I सकीना हाट से दिन ढले. बची हुई सस्ती सब्जियाँ लाती और  ठेला लगाती I दो-तीन दिन तक अपनी बस्ती में सब्जी बेच कर थोड़े  बहुत पैसे कमा लेती I जमील मियां  को कठपुतली के तमाशे से कभी अच्छी कमाई होती तो कभी कम, फिर भी सकीना की आमदनी मिलाकर तीनों का गुज़ारा हो जाता I लेकिन पिछले साल से दोनों मियाँ बीवी के कमज़ोर शरीर को खाँसी-बुखार और जोड़ों के दर्द ने ऐसा जकडा कि दोनों का धंधा मंदा पड़ गया I गरीबी के कारण दिन पर दिन कुपोषण का शिकार  हुआ उनका शरीर ऐसा जर्जर हो चुका  था  कि उनमें साधारण बीमारी झेलने की भी ताकत नहीं रही थी I ऐसे संकट के समय में जमील मियां  और सकीना को  अपनी  बुढौती  की औलाद ‘शकूर’ उम्मीद का आफताब नज़र आता था I जीवन की बुराईयों और ऐबों से दूर  सीधा सादा शकूर अब्बू को तसल्ली देता और दस बजने तक काम पर निकल जाता I  वह बिना ढोल के गाना गाकर, कठपुतली का तमाशा दिखाता और कहानी गढ़ कर तमाशे को अधिक से अधिक रोचक बनाने की कोशिश करता जिससे कि खूब कमाई होए I लेकिन बेचारे का तमाशा दूसरे कठपुतलीवालों के सामने फीका पड़ जाता क्योकि दूसरों की कठपुतलियाँ  अधिक सजीली और ख़ूबसूरत  होतीं, साथ ही ढोल और बाजा बजाने वाले दो-दो साथी भी होते I लिहाज़ा  दूसरों के तमाशे पर अधिक भीड़ उमड़ पड़ती और उसके फीके तमाशे की ओर कोई न आता I इस कारण से और  कुछ, कदम-कदम पे भाग्य के साथ छोड़ देने से जमील मियां  के घर में गरीबी पसरती चली जा रही थी I अब नौबत कई-कई दिनों तक भूखे  मरने की आ गई थी I इस सब का ही नतीजा था कि सात दिन तक भूख से जंग लड़ते रह कर, आज पहली बार जमील मियां  और सकीना ने शकूर को अल्लादीन भाई के पास उधार लेने भेजा था !

सकीना सोच में घुलती बोली – ‘आज अल्लादीन भाई ने उधारी दे दी I कुछ दिन तक हमारा खींच-खींच कर काम चल जाएगा, पर उसके बाद क्या होगा शकूर के अब्बू..??’

‘अल्लाह करम करेगा ! मैंने तो सोचना ही बंद कर दिया है..... ‘जमील मियां की आवाज़ में बेइंतहा कर्ब के साए लहरा रहे थे ! शकूर रोज तमाशा दिखाने जाता और कामचलाऊ आमदनी से किसी तरह रोज़मर्रा की ज़रूरते पूरी करता I किसी दिन तो कमाई ‘नहीं’ के बराबर होती I आर्थिक तंगी दिन पर दिन बढती जा रही थी !


             पिछले तीन महीनों  में धीरे-धीरे  सकीना और जमील मियाँ  बद से बदतर हालत में पहुँच गये थे  I दोनों मियाँ-बीवी की हड्डियाँ  निकल आई थीं, लेकिन जान जैसे निकलना भूल गई थी I कठोर हालात के कारण दोनों का जीवन से मोह खत्म हो चुका था, फिर भी साँसे न जाने की किस तरह  अटकी थीं I जब तक साँसे हैं तो पेट की गुडगुडाहट भी तंग करने से बाज़ नहीं आती I इस बार तो हद ही हो गई थी I घर में पड़े चने-मुरमुरों का आखिरी दाना भी कल खत्म हो गया  था I रोटी की शक्ल देखे फिर से हफ्ता भर बीत  गया I बारम्बार अल्लादीन  भाई के सामने हाथ फैलाना  भी अच्छा नहीं  लगता था I गरमी तीखेपन से ज़र्रे-ज़र्रे  को भेद कर घर-बाहर, हर जगह धावा बोले बैठी थी I यों तो दोनों मियाँ बीवी इन तंग हालात से बेज़ार होकर मर जाना  बेहतर समझते  थे, पर जब जिस्म से जान निकलने को होती,  तो दोनों में से एक से भी मरा नहीं जाता था I दोनों खिंचते प्राणों को पकडने को बेताब से हो जाते I सकीना, शकूर  और जमील मियाँ, सभी की  आँतें कुलबुला रहीं थीं I जब बर्दाश्त की हद ही हो गई तो,  दिल पर पत्थर रख कर सकीना और जमील मियाँ ने शकूर को  किसी तरह भीख माँगने के लिए मजबूर किया I शकूर तैयार नहीं था, पर  ‘मरता क्या न करता.....’ दोनों के दिल रो रहे थे, पर आँखें सूखी थीं I शरीर का सब कुछ तो निचुड  चुका था  तो आँखों में आँसू  भी कहाँ से आते ? शकूर माँ-बाप को तसल्ली देता, ज़िंदगी में पहली बार घर से काम पर जाने के बजाय, भीख माँगने जा रहा था I उसका दिल बैठा जाता था I वह चलता जा  रहा था I पाँव तले धूल का गुबार उठ रहा था  और दिल में बेबसी का..... I शकूर  भटके परिंदे की तरह मन ही मन फडफडाता सा चलता चला जा रहा था I चिलचिलाती बेरहम गरमी  में दूर-दूर तक डरावना सन्नाटा पसरा हुआ था I भीख  माँगता भी तो किससे !?? सब गरमी से छुपे  अपने घरों  में पड़े थे I एक दो दुकाने खुली हुई थी, दुकानदार पसीना पोंछते बैठे थे I शकूर ने उनके सामने हाथ फैलाया तो उन्होंने उसे टरका  दिया I शकूर में आज खाली हाथ घर  जाने की हिम्मत नहीं थी,  सो वह आगे बढता  गया I ऊपर शफ्फाफ आस्मां, नीचे चारों ओर  सफेद  रेत की चादर लपेटे धरती....सारी कायनात उसे कफ़न ओढ़े नज़र आई I ऊँचे नीचे ढलानों से भरा रेगिस्तान शकूर को  खौफनाक लग रहा था या ये उसके खुद के मन के भय  थे जो विपरीत परिस्थियों की उपज थे ? भूख और प्यास से बेहाल शकूर को ज़रा भी एहसास नहीं था कि वह बस्ती  से  कितनी दूर निकल आया है I वह कहीं बैठ कर पल दो पल सुस्ताना चाहता था लेकिन कहीं बैठने का ठिकाना न था, इसलिए उस समय चलना ही उसकी नियति बन चुका  था I तभी अनजाने में शकूर भारत-पाक सीमा के उस इलाके में पहुँच गया जहाँ सरहद पर, न तार खिंचे थे और न दोनों देशों की हद तय करने वाले किसी तरह के निशान बने थे I ऐसे में  किसी का भी भटक जाना मुमकिन था I शकूर तो पानी की बूँद को तरसता वैसे ही बदहवास सा हो रहा  था I उस दीन हीन हालत में वह धोखे में भारत की सीमा में कब घुस गया, उसे पता ही न चला I उसके पाँव उलटे सीधे पड़  रहे थे I थकान से चूर, वह किस ओर बढ़ रहा  था - वह इस बात से अंजान  था I उसका चलना दूभर हो  गया  तो पल भर को खडा रह कर,  वह इधर - उधर देखने लगा I उसे  लगा कि कही वह गश खाकर न गिर पड़े  कि तभी पीछे से उसके कंधे पर एक भारी कठोर हाथ  पड़ा I शकूर ने ज्योंही मुडकर देखा तो पाया कि एक फ़ौजी सा दिखने  वाला आदमी उसे शक की तीखी निगाह से घूरता हुआ, उस पर  बन्दूक ताने खडा था I इतने में वैसे  ही  दो और बन्दूकधारी, न  जाने कहाँ से  आ धमके I शकूर की रूह काँप उठी I वे  ‘सीमा सुरक्षा बल’ के जवान थे, जिन्होंने उसके भारत की सीमा के अंदर घुसने के जुर्म में, उस पर गुर्राते और उसे  खदेडते हुए, जेसलमेर जेलर के सुपुर्द कर दिया I पहले तो शकूर को कुछ समझ ही नहीं आया,  मगर जब सख्त  फौलादी हाथ उस पर बेबात ही  वार करने लगे तो वह बिलबिला  उठा I उसे  खुफिया एजेंट, जासूस न जाने  क्या-क्या कह कर वे ज़लील करने  लगे  I तब शकूर को  समझ आया कि वह गलती से हिन्दुस्तान की सीमा में घुस आया है I  उसे बदकिस्मती  अपने पर टूटती लगी I वह खुद-ब-खुद मानो दोजख में चल कर आ गया था I शकूर उन बेरहम  जवानों  के आगे बहुत गिडगिडाया कि वह कोई जासूस या आतंकी नहीं है, बल्कि वह एक गरीब लड़का है जो भीख माँगने निकला था और भूल से सरहद पार  आ गया I पर पडौसी मुल्क के सीमा पर तैनात जवान  भला उसकी क्यों सुनने लगे ? वे गैरमुल्क बाशिंदे  को छद्मवेशी भोला मुखौटा पहने जासूस ही मान रहे थे, जिसने  दोपहर के सन्नाटे में दबे  पाँव उनकी सीमा में घुसने की जुर्रत करी थी I पुलिस इन्सपेक्टर ने  देश के प्रति अपना फ़र्ज़ निबाहते हुए, शकूर का नाम, उसके वालिद का नाम, शहर का नाम  वगैरा  लिखने की ज़रूरी कार्यवाही पूरी करके, उसे  कैदखाने में डाल दिया I जेल की छोटी सी कोठरी में  पहले से ही बीस-पच्चीस कैदी मौजूद थे I शकूर को अंदर धक्का देकर धकेलते हुए, पुलिस के  सिपाही  अपने भारी- भारी बूट फटकारते चले गए I भूखा  और  कमजोर शकूर  कैदखाने से उठने वाले गरमी  के उफान से उतना नहीं जितना कि अजनबीपन के मनहूस भभके से कंपकंपाया और देखते ही देखते  बेहोश  गया I कुछ देर बाद उसे होश आया तो, वह रो पड़ा I दूसरे कैदियों ने उसे चुप कराने की लाचार कोशिश की,  मगर शकूर  का दिल था कि सम्हालता  ही न था I कुछ देर बाद वह अपने आप चुप हो गया I रह-रह कर रोते-कलपते अम्मी-अब्बू, उसकी आँखों के सामने आ जाते  और जैसे उससे पूछने लगते – ‘शकूर तू कहाँ है बच्चे...’  सुबह से भूखे-प्यासे शकूर की भूख  और प्यास गायब हो गई थी I उसे बस एक ही बात की फ़िक्र थी कि अब अब्बू- अम्मी का क्या होगा I वे इंतज़ार करते-करते पागल हो जाएगें I वह उन तक अपनी खबर यदि  पहुँचाना  भी चाहे  तो यहाँ उसकी  कौन सुनेगा ? वह अंदर ही अंदर हिल गया I अपनी ही लापरवाही और मूर्खता के कारण वह पल भर में अपनी धरती से परायी धरती में चला आया था I इसे कहते हैं ‘बदकिस्मती को गले  लगाना I’ शकूर मन ही मन दर्द के समंदर में गोता लगाता  दुआ करने लगा – ‘ या खुदा ! मैं यहाँ कैदखाने में  और अब्बू-अम्मी अकेले भूखे-प्यासे, मुझसे कोसो दूर पकिस्तान में I अब कौन उनकी देखभाल करेगा ? इस दूरी से तो बेहतर है कि तू हम तीनों को  उठा ले.....’ सोच  के इस भंवर में डूबे  शकूर का चेहरा आँसुओं से तर था मगर  इन आँसुओं से बेखबर वह, अपने अम्मी-अब्बू  को याद  कर-कर के अनजाने में हुई अपनी गलती पर पछता रहा  था ! 

         एक महीने से ऊपर हो गया था ! शकूर के  अब्बू-अम्मी  को अभी तक उसके बारे में कुछ पता नहीं चला था I सकीना और जमील मियाँ की  आँखें इंतज़ार  करते-करते पथरा गई थीं ! सकीना  तो खाट  से लग  गई थी I हर पल दरवाज़े पर टकटकी लगाए एक ही करवट पडी  रहती I हिम्मत करके जमील मियां कंकाल से चलते फिरते, दर-दर भटकते, बस्ती में लोगो से बार-बार पूछते   – ‘किसी ने  मेरे शकूर को कहीं देखा है, किसी ने देखा हो तो बता दो’......! अपने बेटे की इससे अधिक खोज बीन उनके बस की भी नहीं  थी I वह सकीना की खटिया के पास  दुआ करते  बैठे  रहते  कि उनका बेटा जहाँ भी हो महफूज़  रहे I सकीना के दिल ने तो  जैसे धडकना बंद कर दिया था I उन दोनों को यह अफसोस खाए जाता था कि न वे शकूर को भीख माँगने  भेजते  और न शकूर  उनके साए से दूर होता I एकाएक गायब हुए बच्चे का कोई भी सुराग न मिलने पर माँ-बाप की हालत मौत से भी बदतर होती है I एक अजीब भयानकता उन्हें जकडे थी  कि आखिर उनका बच्चा गया तो कहाँ गया....?  उनके जिगर का टुकड़ा ज़िंदा भी है कि नहीं..? रात-दिन बुरे से बुरे ख्याल उन पर  हावी रहते I शकूर  की चिंता में न उनसे जीते बनता है और न मरते I! गुमशुदा बेटे के लौट आने की उम्मीद हर पल बनी रहती I धीरे-धीरे बस्ती में यह अफवाह फ़ैल गई कि ‘शकूर को लुटेरे उठा ले गए, पर जब वह ‘शिकार’ फटीचर निकला तो, लुटेरों ने उसे मार दिया I’ अपनी रोज़ी-रोटी की जुगाड में लगी बस्ती को शकूर के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं थी  ! शकूर सलाखों के पीछे  हताश, निराश हुआ, एक सन्नाटे को पीता बैठा  रहता I नींद ने भी उसका साथ छोड़ दिया था I उसे सोए हुए एक अर्सा हो गया था ! माँ-बाप के बेजान शरीर, सूनी आँखे उसके ज़ेहन में घूमती रहती I  वह मनाता कि काश वह पागल हो जाए ! अपनी तरह बेकुसूर लोगों को उस कोठरी में भेड-बकरियों की तरह साँसें लेते देख शकूर ज़िंदगी से मुँह मोड़ लेना चाहता था I तभी डंडा फटकारता  जेलर  वहाँ  आया कैदियों को टेढी नज़र से देखता बोला –  ‘अब पाँच साल तक जेल में चक्की पीसो बेटा ! हमारे  देश में घुसने की हिमाकत करने का यही नतीजा होता है !’

उस दिन जेलर के मुँह से -‘पाँच साल’ - यह सुनकर तो शकूर का सिर चकरा गया I पाँच साल में तो अब्बू - अम्मी पर न जाने कितनी बार कैसी-कैसी क़यामत आएगी....!! या खुदा ये क्या हुआ .....? उन्हें तो यह भी नहीं पता कि मैं अपने मुल्क में हूँ या गैर-मुल्क में....? यह सोच कर शकूर की आँखों से फिर आँसू बह चले और थमने का नाम ना लेते थे I शकूर आँसू पोंछता जाता और बारम्बार उसकी आँखे भर आती I उसकी आस्तीन आँसुओं से तर हो गई थी !

 एक दिन शकूर  फिर अब्बू - अम्मी  को याद करता हुआ रोता बैठा था कि तभी वहाँ से गुज़रता हुआ डिप्टी जेलर  उसे देख कर कडका – ‘ऐ ये टसुवे काहे को बहा रहा है तू,  यहाँ कोई पिघलने  वाला नहीं I क्या समझा ...? चुप कर या लगाऊँ एक !’                   शकूर घबराया सा सुबकता हुआ एकदम चुप हो गया I उसका मन, निर्दयी डिप्टी जेलर  के हुक्म के बारे में सोचने लगा कि किस बेरहम जमात  से वास्ता पड़ गया है कि  घर वालों को याद करके आँसू बहाना भी गुनाह है ! बेगुनाह  सजायाफ्ता  शकूर का एक-एक दिन एक-एक सदी की तरह गुजर रहा था I दिन-रात उसके मन में सवाल उभरते, दबते  और उसका दिल बैठा जाता I परेशानी, दुःख-दर्द  - वह बेशुमार दर्द  के घेरे में कैद होता जा रहा था I एक साल इसी तरह गुज़र गया I उधर सकीना  और जमील मियाँ को गरीबी और भूख से ज्यादा बेटे को लेकर, तरह- तरह की  चिंताएं  खाए जाती थीं I इधर  कैदखाने में शकूर अपने से सवाल करता-करता खुद एक सवाल बन के रह गया था I वह अक्सर सोचता कि बिना किसी भारी अपराध के पाँच  साल  की    भारी सज़ा...? अल्लाह, राम-रहीम ! तेरी इस दुनिया में इतनी नाइंसाफी......!! यह दुनिया तेरी बनाई हुई वो दुनिया नहीं है, जिसमें सब प्यार से रहते थे, दूसरे की तकलीफ लोगों को  अपनी तकलीफ  लगती थी I यह तो तेरी दुनिया पर खुराफाती, चालबाज़  बाशिंदों द्वारा  थोपी हुई  ऎसी स्याह दुनिया है जहाँ बेकुसूर लोग गुनाहगार करार दिए जा रहे हैं I कोई हल है ऐ मालिक तेरे पास हम बेकस लोगों  की समस्या का…..?   

        पाँच साल पूरे होने को आए थे I सकीना और जमील मियाँ  शकूर की  बाट जोहते-जोहते  अल्लाह को प्यारे हो गए थे I शकूर पाँच साल बाद रिहा होने जा रहा था पर उसके मन में रिहाई  कोई खुशी न थी क्योकि उसे अब्बू-अम्मी  के  ज़िंदा मिल पाने की  तनिक भी उम्मीद न थी I ‘बार्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स’ द्वारा  पूछ्ताछ की औपचारिक कार्यवाही के बाद शकूर निर्दोष घोषित कर दिया गया था I पन्द्रह साल का शकूर जेल से ‘बीस साल’ का होकर निकला था - निरीह, बुझा-बुझा,  लक्ष्यविहीन... I इसके बाद सरकारी नियमानुसार जैसलमेर  पुलिस शकूर को दिल्ली स्थित  ‘पाकिस्तानी हाई कमीशन’ लेकर गई  I अपेक्षित कार्यवाही होने के बाद, शकूर को पाकिस्तान भेजने के लिए, जब भारत स्थित ‘पाकिस्तान हाई कमीशन’ ने  इस्लामाबाद से संपर्क स्थापित किया तो  उसके बारे में इस्लामाबाद  से बुझे तीर सा यह सवाल  उठ कर हिन्दुस्तान की सरज़मीन पर आया कि 
          ‘इसका क्या सबूत है  कि शकूर पाकिस्तानी  है??’  
दिल चीरते  इस सवाल ने शकूर को  ऐसी जज्बाती चोट दी  कि उसका मन किया कि वह खुदकुशी कर ले, पर किस्मत के मारे को वह  भी करने  की आजादी नहीं थी I सरकारी हाथों में इधर से उधर उछाला जाता शकूर खिलौना बनने को  मजबूर  था I बहरहाल उसकी ‘पहचान’ पर सवालिया निशान लगा  कर, पाकिस्तानी अधिकारियों ने उसे अपने मुल्क में लेने से इन्कार कर दिया   और वह  फिर से जेसलमेर जेल  की  सलाखों के पीछे  पहुँचा  दिया गया ! 
            एक दिन जयपुर के शिवराम  ने सुबह की चाय पीते हुए, अखबार की सुर्ख़ियों पर नज़र डाली तो वह एक खास विस्तृत रिपोर्ट पर अटक के रह गया I भारत में पडौसी देश के निर्दोष कैदियों की दुःख भरी दशा, उनके नाम और हालात सहित, एक  रिपोर्टर द्वारा विस्तार से अखबार में पेश  की गई थी I अखबार का पूरा पेज ही भारत में सजायाफ्ता बेगुनाह  पाकिस्तानी  कैदियों और पाकिस्तान जेल में पड़े बेकुसूर हिन्दुस्तानी कैदियों की दुःख भरी दास्ताँ से पटा हुआ था I उन कैदियों में से शकूर की दर्द भरी दास्तान पढकर शिवराम को बड़ी तकलीफ महसूस हुई  I अन्य सब कैदी तो पाँच साल कि सज़ा के बाद पाकिस्तान सरकार द्वारा वापिस ले लिए गए थे I उनके घरवाले बेसब्री से उनका इंतज़ार कर रहे थे और  लगातार पाँच साल से हाय-तौबा मचाए थे I लेकिन हर ओर से मुसीबतों के मारे अनाथ शकूर को  पाकिस्तानी अधिकारियों ने वापिस लेने से इन्कार कर दिया था I पाकिस्तान सरकार के बेरहम रवैये के  खिलाफ पाकिस्तान की  सरज़मीन से शकूर के लिए कोई आवाज़ उठाने वाला भी न था ! बहरहाल अपनी  पहचान पर प्रश्न चिन्ह लिए, वापिस जैसलमेर जेल में रहने  के लिए मजबूर शकूर  के बारे में सोच कर, शिवराम का  दिल भर आया I आगे पूरा अखबार भी उससे नहीं पढ़ा गया ! शिवराम  लगातार दो-तीन दिन तक बेगुनाह शकूर के बारे में सोचता रहा I इस सोच ने उसके मन में सघन बेचैनी  और  दिमाग में  कई प्रश्नों की कतार खडी कर दी I वह ये  सोचकर बेकल था कि एक किशोर लड़का जो, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से तो कमजोर  है ही,  ऊपर से, उसके  देश ने उसे अपना मानने से इन्कार कर दिया - ऐसी शून्य स्थिति में वह बच्चा किस भावनात्मक बिखराव, आक्रोश और  बेचारगी के दौर से गुजर रहा होगा ? उसकी जगह अगर उसका अपना बेटा होता  तो.....इस कल्पना  मात्र से शिवराम का दिल डूबने लगा I वह भावुक हो उठा I धीरे-धीरे  दिमाग में उभरते तर्क वितर्क उसके  ह्रदय में चुभने लगे  I वह  आकुलता  से भरे  सोच के सेहरा  में बड़ी देर तक चलता गया I उसकी संवेदना और तर्क का आकाश व्यापक हो उसके ज़ेहन में उतरने  लगा I शिवराम को लगा कि  इस तरह का खुला  अन्याय  युवकों को, चाहे वे  भारत के  हों या पाकिस्तान के - उन्हें निराशा और खालीपन से भर कर क्या  अपराधी बनने  को मजबूर  नहीं करेगा ? उस नौजवान के आगे सारी ज़िंदगी पड़ी है, क्या वह  निर्दोष होने पर भी राजनीतिक, सामाजिक क्रूरताओं और ऊँचे ओहदे पर बैठे, कुछ अधिकारियों के  सिरफिरे निर्णयों व आदेशों के कारण जीने का अधिकार खो देगा ? यह कैसा न्याय है, यह कैसी मानवता है ? इंसान ही इंसान को खा रहा है !! उस रात वह ठीक से सो न सका I सोचते सोचते उसे झपकी लग जाती, फिर आँख खुल जाती और अंजान शकूर रह-रह कर उसके मस्तिष्क  में उभरने लगता I कभी शकूर की जगह उसके अपने बेटे की छवि उभर-उभर आती I इस तरह सारी रात सोचते-सोचते बीती I लेकिन नई आने वाली  सुबह ने एकाएक उसे अपनी ही तरह एक उजास भरा  सुझाव दिया  कि क्यों न वह  अनाथ शकूर की मदद करे और उसे एक नया जीवन दे ! सवेरे पाँच बजते ही वह इस नेक इरादे  के साथ  उठा I भले ही शिवराम एक आम आदमी था जिसका अपना सुखी परिवार था, आर्थिक दृष्टि से राजा-महाराजा नहीं, तो कमजोर भी नहीं था I कपडे का चलता हुआ व्यवसाय था I दो  उच्च  शिक्षा प्राप्त, विवाहित बेटे थे, जो सुखी  जीवन जी रहे थे I बड़ा बेटा शिवराम के साथ ही व्यवसाय में हाथ  बँटाता था  और छोटा  बेटा मुम्बई की एक कंपनी में मैनेजर था I आत्मिक बल से भरपूर  शिवराम  सँस्कारों का धनी था I दूसरों की  सहायता करने में सदा आगे रहता ! सुबह होते ही शिवराम  दैनिक कार्यों से निबट कर, अपनी पत्नी और बेटे से अपने मन में आए  विचार पर  सलाह-मशविरा  करके, अपने खास मित्रों की राय लेने निकल पड़ा जो सरकारी ओहदों पर थे और सरकारी नियमों व कानूनों की जानकारी रखते थे I शिवराम के  मित्रों ने, शकूर की मदद करने की, उसकी सद्भावना का सम्मान करते हुए उसे राय दी कि वह सबसे  पहले  इस सन्दर्भ में  राजस्थान के प्रांतीय गृह-मंत्रालय में  गृहमंत्री के नाम आवेदन पत्र भेजे  और  धैर्य के साथ वहाँ से जवाब आने की प्रतीक्षा करे I यह कोई आसान और  छोटा-मोटा काम तो है नहीं I प्रत्येक विभाग, हर  मंत्री, हर अधिकारी अपने-अपने स्तर पर सोच-विचार करेगें, समय लेगें, मतलब कि धीरे-धीरे ही बात आगे बढ़ेगी, सो  शिवराम को भरपूर  सब्र से काम लेना होगा I इसा तरह सब के साथ बातचीत करके शिवराम का मनोबल बढ़ा और वह अनेक बाधाओं व उलझनों से भरी इस नेक जंग के लिए मन ही मन तरह तैयार हो गया I इस काम को अंजाम देने के लिए दोस्तों और घरवालों के साथ सोच-विचार करने में सारा दिन निकल गया I किन्तु रात होने तक शिवराम कृत-संकल्प होते हुए भी, त्रिशंकु सी मन:स्थिति में आ गया I अंतर्द्वंद्व  में उलझा शिवराम  बिस्तर पर लेटा तो, वह सोच के एक नए दरिया में बह चला I शिवराम का दिल शकूर की सहायता के लिए उद्यत  था  तो, दिमाग उसे राजनीतिक, सामाजिक और मज़हबी आक्षेपों  और कटाक्षों के निर्दयी प्रहारों के प्रति सचेत कर रहा था I मस्तिष्क के वार उसके  नेक इरादे की धज्जियाँ उड़ा रहे थे I इस तर्क-वितर्क  में उसे शकूर को अपनाने की  सद्भावना से भरी  अपनी सोच  बेमानी नज़र आने  लगती I हिन्दू और मुसलमानों - दोनों ही पक्षों द्वारा तरह-तरह की आपत्ति का भय उसके दिल में हलचल मचाने लगता तो कभी  सरकारी महकमों द्वारा असहयोग की राजनीति, मंत्रियों व नेताओं के शक-ओ- शुबह और दिल  को छलनी कर देने वाले, उस पर उछाले गए तरह-तरह के भावी  सवाल  हमला करने लगते I वह  लगातार करवटें बदल रहा था I फिर उसने  उठकर एक - दो घूँट पानी पिया I पास ही बिस्तर पर लेटी पत्नी की  आँखें मुदीं  थीं,  फिर भी वह शिवराम की बेचैनी को लगातार अपनी बंद आँखों से देख रही थी I जब इस उधेड़ - बुन में बहुत देर हो गई तो वह शिवराम के नेक इरादे को मजबूती देती बोली –   ‘अब सो भी जाओ, क्यों इतना परेशान होते हो !! ईश्वर का नाम लेकर कल से कार्रवाई शुरू करो I तुम तो पुण्य का काम करने जा रहे हो, कोई पाप तो कर नहीं रहे हो, फिर इतना क्या सोच रहे हो और अपनी तकलीफ बढ़ा रहे हो ? ‘
                                 

शिवराम बोला – ‘दुनिया की सोच रहा था कि कहीं लोगों ने मज़हब और देश के नाम पर मेरे इरादे पर बेबात छींटाकशी करी या आपत्ति जताई तो.......’ शिवराम की बात बीच में ही काट कर पत्नी बड़ी सहजता के साथ बोली – ‘अच्छे - भले काम में दुनिया साथ दे ना दे, लेकिन ऊपर वाला ज़रूर साथ देगा और जब सर्वशक्तिमान तुम्हारे साथ होगा तो कैसा डर, कैसी चिंता......? दुनिया तो हमेशा से बिखेरती और कोंचती आई है, सो उसकी परवाह करोगे तो लीक से नहीं हट पाओगे, लकीर ही पीटते रह जाओगे I ’ शिवराम की पत्नी ने घंटों से बेचैन शिवराम की उलझन को मिनटों में सुलझा कर, उसे दृढ संकल्प का मंत्र दे डाला और उसे डाँवाडोल मन:स्थिति से बाहर निकाल लिया I सुबह उठते ही शिवराम ने भारत - पाक सद्भावना के तहत प्रांतीय(राजस्थान) गृह-मंत्रालय को रजिस्टर्ड पोस्ट से एक पत्र भेजा और बेताबी से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा I गृह-मंत्रालय की ओर से संभावित प्रश्नों के लिए भी अपने को तैयार करता जा रहा था I एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह भी जैसा आया था, वैसा ही चला गया I शिवराम को लगा कि अब तीसरे सप्ताह में उसे अवश्य कुछ न कुछ जवाब ज़रूर मिलेगा , लेकिन आशा के विपरीत, वह सप्ताह भी यूँ ही निकला गया I शिवराम को निराशा घेरने लगी I उसे लगने लगा कि अच्छे-भले काम में संबंधित आला अफसर, पाकिस्तान के साथ शान्ति और सद्भावना वार्ता करने वाली सरकार, कोई भी मदद करने वाला नहीं है क्योंकि वह एक ‘आम’ आदमी है I वे अधिकारी-गण पडौसी देश के परित्यक्त और निर्दोष युवक को ज़िंदगी जीने का हक देने के लिए उसके द्वारा उठाए गए सद्भावना पूर्ण कदम में सहयोग देने के स्थान पर, उसे पीछे हटाने की जोड़-तोड़ में लग जाएंगें I तभी शिवराम ने अपने से सवाल किया कि वह अभी से इतना निराश क्यों हो रहा है I उसे धैर्य से इंतज़ार करना चाहिए I सरकारी कार्यालयों में और वह भी मंत्रालय में एक उसी के आवेदन पत्र पर कार्यवाही करने के लिए थोड़े ही नियुक्त वहाँ के अधिकारी I उनके पास तो पूरे देश की अनेक समस्याओं, माँगों, आवेदनों और शिकायती पत्रों की भरमार होगी I यह सोचकर उसका दिल थोड़ा सम्हला और आशा की लौ ने उसके अंतस में मध्दम- मध्दम उजाला भरना शुरू किया I तीन हफ्ते बीत चुके थे I महीने का अंत था I तभी मंगलवार को शिवराम को गृह-मंत्रालय द्वारा भेजा हुआ पत्र मिला जिस पर शानदार अक्षरों में उसका पता अंकित था I गृह-मंत्रालय का लिफाफा देखने भर से उसकी खुशी का ठिकाना न रहा I अपनी खुशी को समेट कर, उसने जोश के उदगार से छलकते हुए, पत्र खोल कर पढना शुरू किया तो अपने मन को कसते हुए, दो-तीन बार उसके एक- एक अक्षर और वाक्य को बड़े ही ध्यान से पढ़ा I गृहमंत्री की ओर से उनके सचिव का पत्र था I शिवराम को मंत्री जी से मिलकर बात करने का दिन और निश्चित समय दिया गया था I शिवराम पत्र पढते ही अपने मित्रों से मिलने, ज़रूरी सलाह लेने के लिए उठ खडा हुआ I उसकी पत्नी ने किसी तरह उसे रोक कर, दोपहर का भोजन कराया I दो दिन बाद शुक्रवार को उसे सुबह ग्यारह बजे मंत्री जी से भेंट करनी थी I किसी मंत्री से पहली बार वह इस तरह व्यक्तिगत मुलाक़ात करने जा रहा था I वह शुक्रवार को निश्चित समय पर गृह-मंत्रालय पहुँचा और बेताबी से अपने अंदर बुलाए जाने की प्रतीक्षा करने लगा I थोड़ी देर बाद उसका बुलावा आया और वह धडकते दिल से उनके भव्य वातानुकूलित कमरे में पहुँचा I प्रवेश करते ही, शिवराम के हाथ-पाँव ए.सी. से कम, उसकी खुद की खुशी के उछाह से अधिक ठन्डे हो रहे थे I मंत्री जी ने सबसे पहले उसकी सद्भावना की और उसे क्रियान्वित करने के इरादे की सराहना करी I फिर एक खुफिया सा सवाल दागा –

‘उस युवक की क्या मदद करना चाहते हैं आप ? यह काम आप सरकार या गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाओं भी पर छोड़  सकते हैं !'

यह सुनकर शिवराम ने विनम्रता से कहा – ‘सर, यदि उन्हें उस अनाथ बच्चे की मदद करनी होती तो, वे अब तक कर चुके होते I दोबारा जेल में रहते उस बेचारे लडके को एक साल से ऊपर हो गया है I मुझे तो किसी भी ओर से उसकी मदद के कोई आसार नज़र नहीं आते I सर, मै तो एक बेघर को घर देना चाहता हूँ, उस मासूम इंसान को ‘पहचान’ देकर ज़िंदा रखना चाहता हूँ - जिससे उसके अपने ही देश ने ‘पहचान’ छीन ली है I मंत्री जी ने फिर पेचीदा सी बात छेडी – ‘हो सकता है कि वह लड़का गुनहगार हो शायद इसलिए ही इस्लामाबाद की ओर से मनाही आ गई I’ जानकारी का और खुलासा करता शिवराम थोड़ा भावुक हुआ बोला – ‘नहीं सर ऐसा नहीं है I नामी अखबार की प्रामाणिक और पुख्ता खबर है कि वह युवक बी.एस.एफ. द्वारा बेगुनाह घोषित किया गया है और जब पाकिस्तान हाईकमीशन ने शकूर को वापिस पाकिस्तान भेजने के लिए इस्लामाबाद से सम्पर्क स्थापित किया तो, वहाँ के अधिकारियों ने शकूर की बेगुनाही के इनाम में, उसे बेमुल्क और बेघर कर दिया I जब उसकी मदद करने के लिए अब तक कोई आगे नहीं आया, तो इंसानियत के नाते जीने का हक़ दिलाने की भावना से मैं उसे अपनाना चाहता हूँ और उसकी हर संभव मदद करना चाहता हूँ I सर, इसमे गलत ही क्या है अगर हालात की मार से जीवन से मुँह मोडे उस बेघर को मैं जीने के लिए थोड़ी सी ज़मीन और थोड़ा सा आसमान देने की इच्छा रखता हूँ तो .......!! इसके उपरांत मंत्री जी ने इस कार्य में आड़े आने वाली बाधाओं का भी व्यावहारिक दृष्टि से ज़िक्र किया I शिवराम तो हर बाधा का सामना करने के लिए कृत-संकल्प था ही I वह विनम्रता से मंत्री जी से बोला –

  ‘सर, मैं हर मुसीबत, हर बाधा को झेलने को तैयार हूँ, बस आप इस मामले में अपने स्तर  पर मेरी अपेक्षित मदद कर दीजिए, मैं ह्रदय से आपका  आभारी होऊँगा I
मंत्री जी ने शिवराम  के संकल्प  को देख कर कहा – ‘ठीक है, मैं केन्द्रीय गृह-मंत्रालय के लिए एक पत्र आपको दिलवाता हूँ  और दिल्ली  फोन करके  भी गृह-मंत्री के सचिव से हर संभव  मदद करने के लिए कह दूँगा I  प्रक्रिया लंबी और जटिल होगी, इस बात  को आप मान कर चलें I’

शिवराम ने आश्वस्ति से सिर हिलाया और धन्यवाद देकर मंत्री जी से मिलने वाले पत्र की प्रतीक्षा में अतिथि कक्ष में जाकर बैठ गया I थोड़ी ही देर में शिवराम को, मंत्री जी के पी.ए. द्वारा दिल्ली के लिए पत्र मिला और यह सूचना भी मिली कि bउसकी एक प्रति फैक्स द्वारा केन्द्रीय गृह-मंत्रालय, दिल्ली को भी भेज दी गई है I शिवराम ने घर लौट कर, तुरंत दिल्ली, अपनी ममेरी बहन को, फोन मिलाया और अपने दिल्ली पहुँचने के प्रोग्राम के बारे में सूचित किया I दो दिन बाद जब वह दिल्ली पहुँचा तो, उसने सबसे पहले मंत्रालय फोन मिला कर अपने पत्र के सन्दर्भ में केन्द्रीय गृह-मंत्री के पी.ए. से मंत्री जी से मिलने का समय माँगा तो पता चला कि वे तीन दिन के आफिशियल दौरे पे बाहर गए हुए थे I अत: उसे चौथा दिन मुलाक़ात करने के लिए दिया गया I शिवराम इस तरह की प्रतीक्षाओं के लिए तैयार होकर आया था I इंतज़ार की घडी बीती और वह दिन भी आ पहुँचा, जब वह मंत्री जी से मिलने रवाना हुआ I जब शिवराम मंत्रालय पहुँचा तो मंत्री जी ने शिवराम से ज़रूरी बातचीत के बाद, अपने पी.ए, द्वारा जैसलमेर पुलिस अधीक्षक के नाम एक आदेश पत्र इश्यू करवा कर शिवराम को दिया कि उसे शकूर से मिलने की इजाज़त दी जाए I आगे की कार्यवाही के बारे में सोचता, खुशी और उत्साह से भरा शिवराम जैसलमेर लौटा और बिना किसी की देरी के अगले ही दिन जैसलमेर पुलिस अधीक्षक को केन्द्रीय गृह-मंत्रालय का अनुमति पत्र दिया, तो पुलिस अधीक्षक महोदय ने उसकी भावना की सराहना करते हुए, जेलर को आदेश दिया कि शिवराम को शकूर से मिलवाया जाए I आदेश पाते ही तुरंत दो सिपाही कैदखाने से शकूर को लेने गए I शिवराम ने देखा कि सामने से एक दुबला-पतला, उठते कद का, गेहुएं रंग वाला, लगभग बीस-बाईस साल का युवक धीरे-धीरे थके कदमों से चला आ रहा था I पास आने पर शिवराम ने देखा कि उसके भोले-मासूम चेहरे पर सन्नाटे से भरी आँखें, जीवन के प्रति उसकी निराशा साफ़-साफ़ बयान कर रहीं थीं I अकेलेपन और भय का एक मिश्रित भाव उसके निरीह व्यक्तिव में सिमटा हुआ था I शिवराम और पुलिस अफसर को शकूर ने भयभीत नज़रों से देखा I शकूर मन ही मन डरा हुआ था कि अब न जाने उसे कौन सी नई सज़ा उसे मिलने वाली है I वह कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था I शिवराम ने पुलिस अधिकारी की अनुमति से, शकूर के नज़दीक जाकर, प्यार से पूछा – ‘बेटा, इस कैद को छोड़ कर, मेरे घर रहना चाहोगे ? मैंने अखबार में तुम्हारे बारे में पढ़ा था कि तुम बेकुसूर हो और तुम्हारा इस दुनिया में कोई नहीं है I पाकिस्तान हाईकमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस्लामाबाद ने भी तुम्हें पाकिस्तानी मानने से इन्कार कर दिया है I’ शिवराम की बात खत्म होने से पहले ही, एक लंबे समय के अंतराल के बाद प्यार और सहानुभूति के मीठे बोल सुनकर, अम्मी-अब्बू से बिछड़े शकूर की आँखें झर-झर बरसनी शुरू हो गई I शिवराम ने देखा कि शकूर के चहरे पर इतनी वेदना तैर आई थी कि उसे लगा कि उसकी आँखों से आँसू नहीं मानो दर्द बह रहा था I शिवराम का दिल भर आया I उसने ममता से भर, जैसे ही उसके सिर पर हाथ फेरते हुए ढाढस बंधाना चाहा, प्यार की उष्मा से भरे स्पर्श को पाकर, शकूर फफक पड़ा I बेरहम कैद से निकल कर सुकून भरी जिंदगी की चाह को वह टूटे-फूटे शब्दों में सुबकते हुए बाँधता ही रह गया, पर उसके विकल मन की बात उसकी सिसकियों और हिचकियो ने कह दी I उस दिन तो शकूर के आँसुओं पर पुलिसवालों का कठोर दिल भी पसीज उठा I अब शिवराम से न रहा गया और उसने अनाथ शकूर को गले से लगा लिया I शकूर को लगा मानो एक साथ हज़ारों चाँद उसकी रूह में उतर आए हैं I वह बेहद ठंडक और इत्मिनान से भर उठा I शिवराम ने शकूर को समझाते हुए कहा – ‘देखो मैं तुम्हारी मदद तभी कर सकता हूँ बेटा, जब तुम भी ज़िंदगी जीने के अपने अधिकार की माँग करो और मुझ पर भरोसा करके मेरे साथ रहने की इच्छा ज़ाहिर करो I तुम्हारी रजामंदी के बिना मैं कुछ नहीं कर सकूँगा, समझे !’

शकूर जो अब तक भावनात्मक ज्वार से काफी हद तक उबर चुका था, शिवराम का हाथ अपने हाथ में लेकर अपूर्व आत्मविश्वास के साथ  बोला – ‘मेरी रजामंदी सौ  फी सदी है, और अपनी इस ख्वाहिश को मैं बेझिझक सबके सामने ज़ाहिर करने को, कहने को तैयार हूँ I आपका यह एहसान मैं ज़िंदगी भर नहीं भूलूँगा I’                                                  

शिवराम बोला – ‘बेटा, यह मैं तुम्हें किसी तरह के एहसान के नीचे दबाने के लिए नही कर रहा हूँ, सिर्फ अपना इंसानी फ़र्ज़ निबाह रहा हूँ I मैं आस्तिक हूँ, पर रोज मंदिर नहीं जा पाता, घंटियाँ नहीं बजाता, फिर भी तुम जैसे बेसहारा और हताश लोगों का कष्ट दूर कर ऊपर वाले का आशीर्वाद व दुआएँ लेना ही, ईश्वर की सबसे बड़ी भक्ति मानता हूँ I इसमें एहसान की कोई बात नहीं, बेटा ! ’ यह कह कर शिवराम मुस्कुराया और शकूर की हौसला बुलंदी करने लगा I इसके बाद शिवराम ने शकूर को आश्वासन दिया कि वह यहाँ से जयपुर पहुँच कर वकील से कानूनी सलाह लेगा और अपेक्षित कार्यवाही करेगा I वह जल्द ही उसे कैद से छुड़ाएगा I शकूर शुक्रगुजार नम आँखों से शिवराम को तब तक देखता रहा, जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया..

         शिवराम ने  जयपुर पहुँचते ही सबसे अच्छे वकील को तय किया और शकूर को भारत की नागरिकता दिलाने की कोशिश  शुरू कर दी I वकील ने  शकूर को भारतीय नागरिकता दिलाने के  तीन  पुख्ता आधारों पर सोच-विचार किया –  

१) सबसे महत्वपूर्ण कारण जो शकूर द्वारा भारत की नागरिकता पाने के हक में बनता था - वह था - इस्लामाबाद द्वारा उसे ‘पाकिस्तानी’ न मानकर, परित्यक्त कर देना और उसका देशविहीन (स्टेटलेस) हो जाना I ‘यूनाइटेड नेशंस चार्टर’ के मुताबिक दुनिया के हर इंसान को, मूलभूत अधिकारों के तहत, एक देश पाने का हक है

२) दूसरा कारण था - बी .एस.एफ. द्वारा शकूर को निर्दोष घोषित किया जाना,

३) तीसरा दृढ आधार था कि पूरे पाँच साल तक शकूर का भारत की धरती पर रहना I शकूर हिन्दुस्तानी था नहीं, पाकिस्तान ने उसे अपना मानने से इन्कार कर दिया I ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय अस्तिवहीनता और पहचान के अभाव में शकूर एक शून्य अस्तिस्व (No Identity) के दायरे में माना गया I इन हालात में उसे किसी भी देश की और खासतौर से उस देश की नागरिकता लेने का अधिकार बनता था, जहाँ वह अपनी ज़िंदगी के कीमती पाँच साल गुज़ार चुका था I इतना ही नहीं, भारतीय संविधान के अनुसार जाति, धर्म, स्थान और लिंग के आधार किसी के साथ भेदभाव करना निषिध्द है I महत्वपूर्ण भारतीय क़ानूनों की उदात्त भावना का सम्मान व अनुसरण करते हुए, शिवराम उस शकूर का बाकायदा अभिभावक बना, जिसका अस्तित्व, उसके अपने ही देश ही द्वारा खत्म किया गया था, इस स्थिति में अगर कोई दूसरा देश उसे मानवाधिकार की दृष्टि से अपनाता है, तो यह उसे जीने का हक दिलाने का ऐसा कार्य था जिस पर किसी भी दृष्टि से कोई भी आपत्ति नहीं कर सकता I वैसे भी अगर कोई इंसान युध्द, विस्थापन, राजनीतिक व सामाजिक आदि किसी कारण से ‘देशविहीन’ हो जाता है तो इसका तात्पर्य है – ‘अस्तित्वविहीन’ हो जाना I यह अस्तित्वविहीनता उसके मूलभूत अधिकारों का हनन है I

  अंतत: इस मुद्दे पर शिवराम के वकील ने  भारतीय संविधान,    यूनाइटेड नेशंस चार्टर,  और मानवाधिकार  एक्ट के महत्वपूर्ण कानूनों और उनकी  धाराओं के तहत इस अनूठे केस को कोर्ट में प्रस्तुत किया. कोर्ट ने  और साथ ही भारत सरकार ने भी उदात्त  भारतीय मूल्यों और मानवता को बरकरार रखते हुए, इस विषय पर संवेदनशीलता से गौर करके,  शिवराम द्वारा शकूर का अभिभावक बन कर, उसकी सारी जिम्मेदारी लेने के प्रस्ताव को  मद्देनज़र रखते हुए, शकूर को भारतीय नागरिकता देने का  ऐतिहसिक  फैसला लिया I   

नागरिकता मिलने के बाद, शकूर भारत में रहने के लिए स्वतन्त्र था I शिवराम ने उसे एक सुरक्षित और अधिक से अधिक सुविधाओं से भरा जीवन देने की इच्छा से बाकायदा कानूनी ढंग से गोद लिया, जिससे पढ़-लिख कर, नौकरी पाने तक, फार्मों में माता-पिता या अभिभावक के कालम भरते समय शकूर की कलम न रुके और वह बेखटके ऐसे कालमों में शिवराम का नाम लिख निश्चिन्त हो सके I इस तरह अपनी सारी ऊर्जा, शक्ति और समय जीवन को आगे ले जाने में लगाए I मन के रिश्तों में बंधा शकूर, शिवराम के रूप में एक पिता को पाकर मानो फिर से जीवित हो उठा था I वह कभी-कभी सोचता कि वह भूल से हिन्दुस्तान की सरहद के पार, क्या एक नया घर पाने आया था.....शिवराम के रूप में पिता पाने आया था  ? इतना तो उसके अपने देश में भी किसी ने उसके लिए नहीं सोचा.....!! अच्छे और नेक इंसान हर जगह हैं – हिन्दुस्तान हो या पाकिस्तान I बस उन्हें पहचानने वाली नज़र और उनके सम्पर्क में आने वाली बुलंद किस्मत चाहिए I उसने लंबी श्वास भरते हुए दुआ करी कि काश ! दोनों देशों के बीच मुहब्बत और अपनापन इसी तरह उमड़े, जैसे कि मेरे और शिवराम बाबू जी के बीच उमडा है !