User:Singhaadi
[1] हैहय क्षत्रिय चंद्रवंशी क्षत्रिय है इनका गोत्र कृष्णात्रेय प्रवर तीन है जो क्रमश: कृष्णात्रेय, आत्रेय और व्यास है, कुलदेवी माँ दुगा जी, देवता शिव जी, वेद यजुर्वेद, शाखा वाजसनेयी, सूत्र परस्कारग्रहसूत्र, गढ़ खडीचा, नदी नर्वदा, ध्वज नील, शस्त्र-पूजन कटार वृक्ष पीपल है, इनका जन्म का नाम एक-वीर था, जो कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण कार्तवीर्य व अर्जुन तथा सहस्त्रो भुजाएँ होने का वरदान होने के कारण सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाने जाते है तथा उनकी पूजा अर्चना उनके अनुयायी सहस्त्रार्जुन के नाम से करते है| जोकि हम हैहयवंशियो को दीपोत्सव की ही तरह महाराज कार्तवीर्य अर्जुन की गरिमामयी इतिहास और उमंग की याद में उनके गुणगान और महिमा को धूम धाम से जयन्ती के रूप में मनाना चाहिए।
राजराजेश्वर सहस्त्रार्जुन जयन्ती कार्तिक शुक्लपक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्त्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंशी क्षत्रियो में सर्व श्रेष्ठ हैहयवंश एक उच्च कुल के क्षत्रिय है| महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्त्रार्जुन) जी का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन श्रीभागवत पुराण में लिखा है इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्त्रार्जुन पुराण के तीन भाग है। सहस्त्रार्जुन जन्म कथा
वैवस्वतश्च तत्रपि यदा तु मनुरुतम:| भविश्यति च तत्रैव पन्चविशतिमं यदा || कृतं नामयुगं तत्र हैहयान्वयवद्धॅ न:| भावता नृपतिविर्र: कृतवीर्य: प्रतापवान ||
श्री मत्स्य पुराण में वर्णित उपरोक्त श्लोक का अर्थ है कि पचीसवे कृत युग के आरम्भ में हैहय कुल में एक प्रतापी राजा कार्तवीर्य राजा होगा जो सातो द्वीपों और समस्त भूमंडल का परिपालन करेगा| स्मृति पुराण शास्त्र के अनुसार कार्तिक शुक्ल पछ के सप्तमी, जो कि हिन्दी माह के कार्तिक महीने में सातवे दिन पडता है, दीपावली के ठीक बाद हर वर्ष मनाया जाता है| माहिष्मती महाकाब्य के निम्न श्लोक के अनुसार यह चन्द्रवंश के महाराजा कार्तवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य -अर्जुन – हैहयवंश शाखा के ३६ राजकुलो में से एक कुल से समबद्ध मानी जाती है| उक्त सभी राजकुलो में – हैहयवंश-कुल के राजवंश के कुलश्रेष्ट राजा श्री राजराजेश्वर सहस्त्राबाहु अर्जुन समस्त सम-कालीन वंशो में सर्वश्रेष्ठ, शौर्यवान,सामर्थ्यशाली, वीर्यवान, निर्भीक और प्रजा के पालक के रूप की जाती है इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा १२००० से अधिक वर्षों तक सफलता पूर्वक शासन किया था| श्री राजराजेश्वर सहस्त्राबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवी पीढ़ी में माता पदमिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दतात्रेय की तपस्या कर वरदान में प्राप्त किए हुए सहस्त्र-बाहु (व प्रत्येक बाहु में सहस्त्र भुजाओं) के बल के वरदान के कारण उन्हें सहस्त्रबाहुअर्जुन भी कहा जाता है|
पूजा विधि सहस्त्रार्जुन श्रीविष्णु के सुदर्शनचक्र अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। तथा पुराणों में भी इनकी पूजा व साधना का वृतांत है कार्तिक शुक्लपक्ष कि सप्तमी की सहस्त्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा – पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत होकर व्रत का संकल्प करे और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्त्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनेंl पुराण में कथा-वर्णन श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्त्राबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है, महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व् शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमे तुवेर्शु सबसे पितृ भक्त पुत्र थे इन्ही के वंश में कृतवीर्य तथा उनके पुत्र के रूप में कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुए कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्त्रबाहु (भुजाओ) का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्त्राबाहु अर्जुन भी कहा जाता है| हरिवंश पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, कालिका पुराण, पदम पुराण में हैहयवंश और महाश्मती संबंधी रोचक विवरण पढने को मिल सकती है जिसके अनुसार चंद्रवंश के महाराज ययाति के बाद यदुवंश प्रादुर्भाव के समकालीन शाखा ययाति वंश में हैहय वंश का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है| हरिवंश पुराण (अध्याय ३८), वायु पुराण (अध्याय २ व् ३२) तथा मत्स्य पुराण (अध्याय ४२) में वर्णित है| इसी में कुछ ग्रंथो के अनुसार कंकोतक नाग वंशजो के साथ हैहयवंश राजा, कार्तवीर्यासहस्त्रार्जुन या सहस्त्रबाहु ने युद्ध में जीत कर अपने अधिपत्य में स्थापित करने का उलेख्य मिलता है| ययाति के वंशज को चन्द्रवंश शाखा का उदय माना जाता है, ययाति की दो रानियॉं थी। प्रथम भार्गव ऋषि शुक्र उषना की पुत्री देवयानी और द्वितीय दैत्यराज वृश पर्वा की पुत्री शमिष्ठा। देवयानी से यदु और तुर्वस राजवंश तथा शमिष्ठा से द्रुह, अनु और पुरु नाम के पॉंच पुत्र हुये। ययाति ने अपने राज्य को पॉंच प़ुत्रो में बॉंट दिया जिस कारण ययाति से पॉंच राजवंशों का उदय हुआ। यदु से यादव राजवंश, तुर्वसु से तुर्वस राजवंश, द्रुह से द्रुह, अनु से आनव और पुरू से पौरव राजवंश का विस्तार हुआ। ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को चंबल-वेतवा और केन नदियों का मघ्यवर्ती राज्य दिया। महाराज यदु के पॉंच पुत्र हुये जिनमे सहसतजित, क्रौत प्रमुख थे। यदु वंश के समकालीन तुर्वस राजवंश के अंतर्गत राजा तुर्वस के तीन पुत्र हुए जिसमे हैहय, हय और वेणुहय हुए, जिसमे हैहय के नाम से ही हैहयवंश का विस्तार हुआ और हैहयवंश की शाखा जाना जाता है हैहयवंश के विस्तार में राजा साहज्ज के वंश के विस्तार में, राजा कनक के चार सुविख्यात पुत्र कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि हुये, जो समस्त विश्व में विख्यात थे। राजा कनक के ज्येष्ठ पुत्र कृतवीर्य उनके पश्चात राज्य के उत्तराधिकारी बने। वे पुण्यवान प्रतापी राजा थे और अपने समकालीन राजाओ मे वे सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते थे। इनकी रानी का नाम कौशिका था। महाराज कृतवीर्य से कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुये। इन्हे सहस्त्रार्जुन के नाम से भी जाना जाता है महाराज कृतवीर्य के पश्चात कार्तवीर्यार्जुन (सहस्त्रार्जुन) जी राजगद्दी पर बैठे। पौराणिक ग्रंथो में कार्तवीर्य अजुर्न के अनेक नाम अंकित है जैसे सहस्त्रार्जुन, कृतवीर्यनन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदर्शनचक्रावतार, सप्तद्वीपाधि आदि। महाराज कार्तवीर्यार्जुन जी के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय जी एवं ब्रम्हा जी पधारें। राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी शस्त्र -अस्त्र धारण नही करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे तथा उनके राज्य में दस्यु चोर नहीं थे दान धर्म दया एवं वीरता में उनके समान कोई नही था। तथा उनके समय में उनके नाम से संवत भी था हैहयोंवंशियो के राज्यसमय में संवत् भी था जो कलचुरि संवत् कहलाता था और विक्रम संवत् ३०६ से आरंभ होकर १४ वीं शताब्दी तक इधर उधर चलता रहा और यह इंगित करता है की राजराजेश्वर सहस्त्राबाहु महाराज अपने युग के एक मात्र राष्ट्र पुरुष एवं युग-पुरुष के साथ-साथ धर्म निष्ठा एवं शौर्यवान भी थे उस समय के विश्वविजयी रावण को अपना बंदी बनाना यह प्रमाणित करता है| उन्होने साक्षात भगवान के अवतार दतात्रेय जी को अपना गुरु माना और उन्ही से अपनी सारी शिक्षा, दीक्षा तथा धनुर्विद्या का गुण सिखा था, बाद में उनका अपने तप और उपासना द्वारा अपराजय होने और सहस्त्र भुजाओ के बल होने का वरदान प्राप्त किया था तथा साथ ही साथ भगवान दत्तात्रेय का मार्गदर्शन भी प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया जिसके कारण ही वह राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन कहलाते है| और उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था वे परम भक्त और भृगुवंशी ब्राह्मण के यजमान थे| तथा सहस्त्रार्जुन परशुराम के सगे मौसा थे। उस समय में उनके जैसा दानवीर कोई और दुसरा शासक नहीं था| उन्होंने बहुत सारे यज्ञ और हवन का आयोजन कर प्रचुर मात्रा में ब्राह्मणों को धन दान किया तथा प्रजा को हमेशा सुखी रखते थे| इनका परस्पर संबंध होने से इनका व परशुराम के पिता जमदग्नि ॠषि का इनकी माता रेणुका को लेकर विवाद हो गया था। परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका का सिर काट दिया था। जिससे नाराज होकर इनके मौसा सहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि ॠषि का आश्रम उजाड़ दिया। और उनकी समस्त संपत्ति को छीन कर उन्हे दंड दिया इसमें कामधेनु भी थी जिसके बाद राम(परशुराम) से 20 बार युद्ध हुआ और परशुराम हार गए फिर उन्होंने रावण से मदद मांगी परंतु रावण सहस्त्रबाहु के पराक्रम को जानता था उसने राम को भगवान शिव का वरदान प्राप्त करने की सलाह दी जिसपर परशुराम ने भगवान शिव की आराधना की और शिष्य बनने का वरदान और दिव्य अस्त्र मांगा जिसपर भगवान शिव ने उन्हें परशु दिया और परशुराम नाम से संबोधित किया जिसके बाद राम को परशुराम कहा जाने लगा तत्पश्चात परशुराम ने पुनः रावण से मदद मांगी और उसकी सेना लेकर महिष्मति पर 21वी बार आक्रमण किया तथा उस परशु से सहस्त्रबाहु पर प्रहार किया भगवान शिव का परशु अभेद्य था तो सहस्त्रबाहु को उसकी अवहेलना नही कर सके और स्वयं को शिव को समर्पित कर शिवलिंग के स्वरूप में समाहित हो गए। महेश्वर धाम में आज भी उनका मंदिर है
समाज में आम धारणा यह है कि परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियविहीन कर दिया था। सोचिए एक ही बार क्षत्रियों से विहीन करने के बाद दूसरी बार कैसे क्षत्रियों का जन्म हुआ,एक समय ऐसा भी आया था जबकि परशुराम को क्षत्रिय कुल में जन्मे भगवान श्रीराम के आगे झुकना पड़ा तथा अपने सारे अहंकार छोड़ने पड़े
राजराजेश्वर सहस्त्रबाहुकार्तवीर्यार्जुन के शिवलिंग में समाहित होने के बाद उनके पांच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
जयध्वज के सौ पुत्र थे जिन्हें तालजंघ कहा जाता था, क्योंकि ये काफी समय तक ताल ठोंक कर अवंति क्षेत्र में जमे रहें। लेकिन परशुराम के क्रोध के कारण स्थिति अधिक विषम होती देखकर इन तालजंघों ने वितीहोत्र, भोज, अवंति, तुण्डीकेरे तथा शर्यात नामक मूल स्थान को छोड़ना शुरू कर दिया। इनमें से अनेक संघर्ष करते हुए मारे गए तो बहुत से अपने को विभिन्न जातियों एवं वर्गों गुप्तरूप से होकर अपने आपको सुरक्षित करते गए। अंत में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर अपराध करने से रोक दिया। क्योंकि परशुराम दस्यु के जैसा कार्य कर रहे थे और अपने किए हुए पाप से मुक्ति पाने के लिए तपस्या का मार्ग सुझाया परंतु परशुराम के अनुयायी दस्यु का कार्य करते रहे बाद में सूर्यवंशी राजाओं ने उन्हें दंडित कर राज व्यवस्था को सुधारा और परशुराम जी भगवान विष्णु की आराधना और तप करने के कारण तथा पीत वस्त्र धारण करने के कारण उन्हें सभी भगवान विष्णु का अवतार समझने लगे परंतु यह एक कथानक है और राजराजेश्वर की संताने जिनका इतना बड़ा साम्राज्य नष्ट कर दिया गया वो जीवन यापन हेतु अपनी क्षत्रिय विद्या और युद्ध में अस्त्र-शस्त्र बनाने की कौशल का उपयोग धातु विज्ञान की विशिष्टता मां दुर्गा से प्राप्त होने के कारण बर्तन निर्माण व उनका व्यासाय अपनी जीवनयापन के लिए किया था|, हैहयवंश के बारे में किसी कवि ने कहा है –
इनके पुरखे एक दिन थे, भूपति के शिरमौर| जिनकी संतान आज है, कही न पाती तौर||
मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में इंदौर से लगभग ७० किलोमीटर दखिन में नर्मदा नदी के उतरीं तट पर महेश्वर जिसे माहिष्मति के नाम से भी जाना जाता है स्थित है| इस मंदिर के ठीक विपरीत नर्मदा के तट के दूसरे छोर पर नावदा टीला स्थान है जोकि ताम्रयुगीन संस्कृत का सूचक और अवशेष के रूप में माना जाता है| हमें महाभारत में महेश्वरपुर और माहिष्मति नगर या स्थान का उलेख्या भी देखने को मिलता है जो संभवत: महेश्वर या माहिष्मति का ही बोधक है| एक अन्य पुराण पद्म के अनुसार माहिष्मति में ही त्रिपुरासुर का वध हुआ था| लगभग सभी पुरानो और ग्रंथो में यदुवंश के समकालीन ययाति शाखा हैहयवंश का माहिष्मति पर राज्य और अधिकार करने का वर्णन है, और माहिष्मति ही हैहयवंश के राजाओं की राजधानी भी रही| पुरानो में यह भी वर्णित है की त्रिपुर या त्रिपुरी का विध्वंश शिवजी ने महेश्वर में किया था, पुरानो में त्रिपुरी के मुख्य शाशक तथा तर्कापुर के नाम भी मिलते है| मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हज़ार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हज़ार वर्ष दत्तात्रेय जी की उपासना करना बतलाया है I श्री राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भाँति सम्राट सहस्त्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे I उनकी अपर लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी I आज भी उनकी समाधी स्थल "राजराजेश्वर मंदिर" में उनकी देवतुल्य पूजा होती है I उन्ही के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मतस्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : -
यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः I न तस्य वित्तनाराः स्यन्नाष्ट च लभते पुनः I कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमतः II यथावत स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महितये II
उक्त श्लोक के अनुसार जो प्राणी सुबह-सुबह उठकर श्री कार्तवीर्य सह्स्त्राबहु अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का कभी नाश नहीं होता है और यदि कभी नष्ट हो भी जाय तो पुनः प्राप्त हो जाता है I हरिवंश पुराण के अनुसार - जो मनुष्य सहस्त्रार्जुन के जन्म आदि का पाठ नित्यशः कहते और सुनते है उनका धन कभी नष्ट नहीं होता है तथा नष्ट हुआ धन पुनः वापस आ जाता है। इसी प्रकार जो लोग श्री सहस्त्रार्जुन भगवान के जन्म वृतांत की कथा की महिमा का वर्णन कहते और सुनाते है उनकी जीवन और आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाति है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है| वर्तमान परिवेश पुरशराम व उनके दस्यु(राक्षस) के भय हैहयवंशी क्षत्रियों के अपने मूल स्वरुप को छिपाना पड़ा । परंतु इस प्रक्रिया में धीरे धीरे हैहयवंशी अपने को क्षत्रियों से अलग रहने लगे और अपने गरिमामय इतिहास को भूलने पर विवश हो गए जिस समुदाय या वर्ग (जो अनेक प्रकार के कार्य करते थे ) में शमिल हो गए और उसी के कर्म अनुसार अपनी पहचान भुला (छिपा) दी, उन्ही समुदाय और वर्गों में अन्य समुदायों की तरह कांस्ययुग में कांस्य का काम करने के कारण कसेरा (आधुनिक रूप कांस्यकार), ताम्रयुग में तांबे का काम करने के कारण तमेरा (आधुनिक रूप ताम्रकार) इसी प्रकार अन्य प्रान्तों, जगहों में परिवेश अनुसार अनेक प्रकार के संबोधनो से बहुत सारे उप-नाम प्रचलित है, उत्तर पूर्व और मध्य भारत के कई राज्यों में बर्तन बनाने और उसका व्यासाय करने का काम हैहयवंशियो द्वारा प्रचुर मात्रा में किया जाता रहा है, जोकि वास्तव में हैहयवंश क्षत्रिय वंश/जाति के वंशज है|