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जैन इतिहास
जैन धर्म संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर[2] ऋषभ देव हैं। जो ज्ञान तप के मध्यम से आत्म ज्ञान प्रप्त करते हैं और जो संसार से पार लगने वाले तीर्थ की रचना करते हैं, इन्हे तीर्थंकर कहते हैं। जैन धर्म में कुल चोबिस तीर्थंकर हैं उन्मे से जो सबसे पहले तीर्थंकर हैं वो ऋषभ देव[3] हैं।
चोबिस तीर्थंकर में से तीन सबसे महत्वा पूर्ण तीर्थंकर हैं, पहले जो की ऋषभ देव हैं जिनका प्रतीक चिन हैं सांड, तेईसवे जो की हैं पार्श्वनाथ[4] जिनका प्रतीक चिन है सर्प का फन, चोबिसवे जो की है महावीर स्वामी[5] जिनको वास्तविक संस्थापक माना जाता है उनका प्रतीक चिन है शेर। जो तेईसवे तीर्थंकर जैन धर्म के, पार्श्वनाथ, झारखंड में शिखर पर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। ज्ञान की प्राप्ति के बाद उन्होंने चार नियम बताए थे जिनके चतुरायेन धर्म[6] कहा जाता है।
1) हिन्सा ना करना
2) सदा सत्य बोलना
3) चोरी ना करना
4) सम्पत्ती न रखना
पार्श्वनाथ महावीर स्वामी से लगभग 250 साल पहले हुए थे। चोबिस्वे तीर्थंकर जो की महावीर स्वामी जो की जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक है, वो जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर है। उनके सांसारिक जीवन में देखेंगे तो उनका जन्म 540 ईसा पूर्व में कुंडग्राम[9] में हुआ था। इनके पिता का नाम था सिद्धार्थ[10]। उनकी माता का नाम था त्रिशला[11]। उनके भाई का नाम था नंदिवर्धन। उनकी पत्नी का नाम था यशोदा। उनकी पुत्री का नाम था प्रियदर्शनी। अनके दामाद का नाम था जमाली। महावीर स्वामी जी के पिता कुंडग्राम के ज्ञात्रिक वंश के राजा थे। महावीर स्वामी जी के बचपन का नाम वर्द्धमान था, जब उनको ज्ञान की प्राप्ति हुई थी तब इनका नाम महावीर स्वामी हुआ था। अब हम बात करते हैं महावीर स्वामी के आध्यात्मिक जीवन की, महावीर स्वामी ने तीस वर्ष की उमर में माता पिता की मृत्यु के पश्चात अपने बड़े भाई नंदीवर्धन[12] से आग्या लेकर संन्यास जीवन को स्विकारा था। बारह वर्षो की कठिन तपस्या के बाद महावीर स्वामी जी को रिजुपालिका नदी[13] के तत पर साल वृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए ज्ञान की प्राप्ति हुई और ज्ञान प्राप्ति को "केवल्य" कहा गया। इस्सी समय से महावीर स्वामी अर्हत (पूजा) निर्ग्रंथ (बंधन) जिन (विजयता) कहलाये। महावीर स्वामी ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा[14] में दीये। इन्होंने पहला उपदेश राजगीर में दिया और अंतिम उपदेश पावापुरी में दिया। महावीर स्वामी का प्रथम भिक्षु उनका दामाद जमाली[15] बना। ज्ञान की प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी जी ने कुल 5 नियम बताए। जिसे पंचायन धर्म[16] कहा गया।
1) हिंसा ना करना
2) सदा सत्य बोलना
3) चोरी ना करना
4) सम्पत्ति ना रखना
5) ब्रह्मचर्य
महावीर स्वामी जी ने त्रिरत्न दिए जो की थे, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण। जैन धर्म में ईश्वर की मान्यता नहीं है बल्कि आत्मा की मान्यता है। इसी लिए महावीर स्वामी ने मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध किया। महावीर स्वामी ने पूर्वजन्म को मानाऔर पूर्वजन्म का सबसे बड़ा करण आत्म को बताया। 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी की मृत्यु (निर्वाण) 468 ईसा पूर्व में बिहार राज्य के पावापुरी में हो गई। महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद के दो प्रमुख अनुये हुए, एक स्तुलभद्र[18] और दूसरा भद्रभावे। जिन्होंने स्तुलभद्र से शिक्षा ग्रहण की उनके अनुयाये कहलाये श्वेतांबर[19] और भद्रभावे से जिन्होंने शिक्षा ग्रहण की उनके अनुयाये कहलाये दिगंबर[20]। श्वेतांबर यानी की जिनहोने श्वेत विशाल धन किये और दिगंबर वो कहलाये जो की नंग रहे। जैन साहित्य किसि एक काल की रचना नही है, इन्का संकालन भिन्न भिन्न कालों से हुआ है। जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, आगम यानि की सिद्धांत। जैन साहित्य है 12 अंग, 12 उपांग, 10 पाकिरण, 6 छेद सूत्र, 4 मंगल सूत्र।
प्रमुख जैन मंदिर है:
1) मौर्य काल[23] में मथुरा जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। मथुरा कला का संबंध जैन धर्म से है।
2) कर्नाटक के चामुंड शासकों ने श्रवणबेलगोला में विशाल बाहुबली की मूर्ति, जिसे गोम्मतेश्वर की मूर्ति[24] कहा जाता है, इस्का निर्माण करवाया।
3) मध्य प्रदेश में चंदेल शाशको ने खजराहो में जैन मंदिरों का निर्माण करवाया।
4) राजस्थान के माउंट अबू में दिलवाड़ा के प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं।
References:
hindi webdunia
Jagat Guru Rampal Ji[25]
AajTak[26]
Books and Historic culture
जैन धर्म का विश्वकोश
जैन संस्कृति शब्दकोश भाग 1
जैन संस्कृति का इतिहास, कला और पुरातत्व
कल्पसूत्र
आगमा
कला और धार्मिक अनुसंधान संस्थान, वाराणसी
ऋषभनाथा
महावीरा
श्वेतांबरा और दिगम्बरा
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