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User:Krishankeer109.

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विदेशी चैनलों के युग में जैसे भारतीय संस्कृति गायब है, वैसे ही पिछले कई दिनों से राधेलाल गायब है। भारतीय जनता बुद्धू बक्से की नशेड़ी है, मैं राधेलाल का नशेडी हो गया हूँ। जानता हूँ कि राधेलाल से मिलकर मुझे कोई सार्थक उपलiब्ध नहीं होगी, घंटों इधर उधर की हाँक कर वह मेरा समय ही नष्ट करेगा, पर क्या करूँ जानकर भी अनजान होना पड़ता है। लोग जानते हैंं कि शराब आत्मा और शरीर दोनों का नाश करती है, लोग जानते हैं कि जिन्हें हम जनसेवक समझकर वोट देते हैं, वो जनता और देश दोनों का नाश करते हैं, परंतु स्वयं को भुलावे में रखने की हम भारतीयों को आदत पड़ गयी है, और मैं भी भारतीय हूँ। लोगों के लिए मजबूरी का नाम महात्मा गांधी होता है, मेरे लिए राधेलाल होता है। दफ्‍तर से घर लौटता हूँ तो निगाहें राधेलाल को तलाशती हैं कि उसका बटन खोलूँ और कुछ भी अनाप खनाप सुनता रहूँ। राधेलाल अनाप शनाप बोलता है तो कुछ भी सोचने को मन नहीं करता है, मन करता है तो बस उसे देखने और उसकी बकवास सुनने का। जीवन में जब कुछ सार्थक न रह गया हो तो बकवास सुने बिना गुजारा ही कहाँ है। चुनाव के दिनों में लगातार बकवास सुनते सुनते अब कुछ भी सार्थक सुनने का मन ही नहीं करता है। बहुत ढूँढने पर भी राधेलाल ईमानदारी, नैतिकता और न्याय की तरह नहीं मिला। जैसे महापुरुष सत्य की खोज में निकल पड़े थे, वैसे ही मैं भी राधेलाल की खोज में निकल पड़ा। महापुरुष तो सत्य की खोज में जंगलों, पहाड़ों, नदियों, नालों आदि में भटके थे और मैं भी खोज के नाम पर भटकना चाहता था परंतु मेरा भाग्य कि मेरा सत्य, राधेलाल, मेरे घर से मात्र सौ गज की दूरी पर रहता है। महानगर में ये दूरियाँ ऐसे होती हैं जैसे हाथी के मुँह में गंडेरी या राजनेता की जिंदगी में सौ रुपए का घोटाला। मैंने राधेलाल को घर में खोजा तो पाया कि दोनो हाथों में सर दिए वह ऐसे सुशोभित हो रहा है जैसे विदेशी चैनलों के बीच भारतीय दूरदर्शन सुशोभित होता है। राधेलाल के चेहरे पर कृषि दर्शन की शुष्कता थी और आँखें किसी समाचार वाचक सी बेजान थीं। ओंठ टेलीफिल्म की तरह नीरस लग रहे थे। "अरे राधेलाल, ये क्या महात्मा बुद्ध की तरह मुद्रा बनाए बैठा है ?" मेरा प्रश्न सुनकर राधेलाल ने सर उठाकर देशा और थोड़ा ब्रेक के बाद बोला, ’’महात्मा बुद्ध की तरह मुद्रा नहीं, मैं महात्मा बुद्ध की तरह घर छोड़ने कह सोच रहा हूँ।" "........घर छोड़ने की सोच रहा है! तुझे किस सत्य की तलाश है, प्यारे राधेलाल ?" ’’सत्य गया भाड़ में," राधेलाल नें सच ही कहा, आजकल सत्य भाड़ में ही रहता और सच कहने वाले भाड़ झोंकते है। सत्य के पास आजकल न तो न्यायालय में रहने के लिए जगह है और न संसद में। लोगों के दिल ईर्ष्या, द्वेष और आकांक्षाओं से भरे हुए हैं, बेचारा रहे तो रहे कहाँ ? ’’यार सत्य नें तेरा क्या बिगाड़ा है, जो उसे तू भाड़ में झोंक रहा है? बहुत परेशान लग रहा है चिंता मत कर मंहगाई जल्दी ही दूर होगी। विश्व बैंक से बहुत सा उधार मिलने वाला है।" ’’मंहगाई गयी भाड़ में वो तो साली हर समय लागू रहती है। जब से मैं पैदा हुआ, और आज जब मेरी पैदावार मेरे लिए पोते - नातियों को संसार में ला रही है, एक दिन भी ऐसा नहीं गया कि मैंने ंहगाई का रोना न सुना हो। इतने वेतन आयोग आ गए, इतने डी. ए. - शी. ए. मिल गए पर महंगाई को नहीं जाना था नहीं गई। इधर सरकार वेतन बढ़ाती है और उधर दूकानदारों दाम बढ़ा देते हैं। घर कभी महंगाई के लिए अखाड़ा बनता है और कभी दूरदर्शन के कारण।" ’’दूरदर्शन के कारण घर अखाड़ा बना हुआ है, मैं समझा नहीं..." ’’तू समझेगा भी नहीं, जाकि फटी न पैर बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। तेरा क्या है, घर में एक तू है और दूसरी भाभी जी हैं। बच्चे होस्टल में पढ़ रहें हैं। यहाँ दो लड़कियाँ, एक लड़का, बहू, पोते - पोतियाँ और एक अदद पत्नी, है।" ’’ये तो अच्छा ही है, भरा पूरा परिवार है, जैसे शांति धारावाहिक का है।" ’’शांति नहीं अशांति कह.... समझ ले जो हाल शांति धारावाहिक का है, वही हाल मेरा है। बस नाम की शांति है।" ’’वो कैसे ?" "वो ऐसे प्यारे प्रेम भाई, टेलीविजन एक है और उसके प्रेम दीवाने अनेक हैं। किसी को कामेडी सीरियल देखना है तो किसीको सस्पेंस वाला देखना है, किसी को फिल्म देखनी है तो किसी को धार्मिक धारावाहिक देखना है, किसी को क्रिकेट का मैच देखना है तो किसी को समाचार सुनने हैं। इस चक्कर में सारे घर में महाभारत मचा रहता है। शाम को दफतर से घर का लौटता हूँ तो कोई चाय को नहीं पूंछता है। बच्चे किताबें कम खोलते हैं, टी.वी. ज्यादा खोलते है। किसी के पास किसी से बात करने के लिए समय नहीं है। घर में घुसते ही घर घर कम मछली बाजार अधिक लगता है। यकीन न हो तो अंदर घुसकर देख लो...." "ओह तो तुम इसलिए बाहर बरामदे में बैठे हो... शुक्र है घर का कोई कोना, चाहे घर से बाहर ही हो, तो तुम्हारे आराम के लिए सुरक्षित है।" "कैसा आराम ? यहाँ भी कोई चैन से नहीं बैठने देता है... अभी देखना थोड़ी देर में..." राधेलाल नें बात अभी पूरी ही नहीं की थी कि उसके पोते पोतियों ने लड़ते झगड़ते प्रवेश किया। तीनो को लड़ते देश भारतीय संसद की याद हो आई। भारत का सुनहरा भविष्य इस विषय पर संघर्ष - पथ पर कदम से कदम मिलाए चल रहा था कि घर में किस कंपनी के नुडल्स आएँगें और किस कंपनी की सॉस आएगी और किस कम्पनी का ठंडा पेय आएगा। इस महाभारतीय संग्राम में अंतत: तय हुआ कि तीनों के लिए अलग अलग कंपनियों के पदार्थ आयेंगें। मैंने कहा "सच राधेलाल, ये तो बहुत बड़ी समस्या है..." "ये समस्या तो कुछ नहीं है प्यारे प्रेम भाई, समस्या तो तब विकराल रूप धारण करती है जब मेरी पत्नी बहू और बेटियों में खींचातानी चलती है। हर समय कोई न कोई अपने पसंददीदा धारावाहिक को देखने के लिए दूरदर्शन से ऐसे चिपका रहता है जैसे दूरदर्शन न हो मंत्री - पद हो। न समय पर खाना मिलता है और न समय पर चाय। घर में आए हुए मेहमान भी आपसी दुख - सुख की बात कम करते हैं, धारावाहिकों के सुख - दुख की बात अधिक करते हैं। धारावाहिक में कोई प्रिय पात्र कष्ट में हो तो उसे देशकर सब गमगीन हो जाते हैं और मेरी बीमारी का उनके लिए कोई मतलब ही नहीं है। घर में कई कंपनियों के चाय, घी, तेल,साबुन आदि आ जाते हैं। एक ही समय में तीन लोगों के लिए तीन ब्रांडो की अलग - अलग चाय बनती है। घर का बट कानून और व्यवस्था की स्थिति की तरह बिगड़ता ही जा रहा है। सरकार के पास तो विश्वकोष है, घाटे का बजट है और पार्टी है, मेरे पास क्या है?" यह कहकर राधेलाल फूट फूट कर रोने लगा। मैंने भी आज के पड़ोसी होने के नाते कोरी सहानुभूति दी और घर आकर राधेलाल की दुष्ट सुख उठाया कि मेरा प्यारा पड़ोसी दुखी है।


आजकल आत्मा की आवाज़ की जैसे सेल लगी हुई है। जिसे देखो वो ही आत्मा की आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठा है। आप न भी सुनना चाहें, तो जैसे क्रेडिट कार्ड, बैकों के उधारकर्त्ता, मोबाईल कंपनियों के विक्रेता अपनी कोयल-से मधुर स्वर में आपको अपनी आवाज़ सुनाने को उधार खाए बैठे होते हैं वैसे ही आत्मा की आवाज़ का धंधा चल रहा है। कोई भी धार्मिक चैनल खोल लीजिए, स्वयं अपनी आत्मा को सुला चुके ज्ञानीजन आपकी आत्मा को जगाने में लगे रहते हैं। आपकी आत्मा को जगाने में उनका क्या लाभ, प्यारे जिसकी आत्मा मर गई हो वो धरम-करम कहाँ करता है, धरम-करम तो जगी आत्मा वाला करता है और धरम-करम होता तभी तो धार्मिक-व्यवसाय फलेगा और फूलेगा। इसीलिए जैसे इस देश में भ्रष्टाचार के सरकारी दफतरों में विद्यमान्‌ होने से वातावरण जीवंत और कर्मशील रहता है वैसे ही आत्मा के शरीर में जगे रहने से ’धर्म’ जीवंत और कर्मशील रहता है। मैं संजय की तरह देख रहा हूँ (अब आप ये मत पूछिएगा कि तुम संजय हो तो इस राष्ट्र में धृतराष्ट्र कौन है, वरना लोगों को आप ही धृतराष्ट्र नज़र आएँगे) कुछ रिरिया रिरिया कर भीख माँगते स्वर चिल्ला रहे हैं, “अल्लाह के नाम पर, मौला के नाम पर, हे कोई श्रोता, हे कोई श्रोती जो मेरी आत्मा की आवाज़ सुन ले। सुन लो भैया बहुत छोटी-सी आवाज़ है, एक मिनिस्ट्री का सवाल है बाबा।” मैंने उनसे पूछा, “क्या, आपको सुनाई देता है?” उन्होंने मुझे घूरा जैसे अमेरिका ने इराक को घूरा हो और कहा, “मुझे बहरा समझा है, हमसे मजाक करता है? तेरा दिमाग ठीक है, वरना ढूँढूँ तेरे यहाँ भी हथियार। हमसे मजाक करना बहुत महँगा पड़ता है, प्यारे! कभी न करना मजाक, हमसे और किसी पुलिस वाले से। समझ गए न प्यारे जी” और मैं प्यारा बढ़ती हुई महँगाई के बावजूद महँगे मजाक से नहीं डरा और पूछ बैठा, “~आपको आत्मा की आवाज़ सुनाई देती है?” वे बोले, “पागल है क्या, मैं कोई नेता हूँ जो आलतू-फालतू आवाजें सुनता रहूँ।” सच आजकल आत्मा की आवाज आलतू-फालतू ही हो गई है। कुछ के यहाँ आत्मा की आवाज़ पालतू हो गई है, जब चाहा भौंकवा दिया।

कबीर के समय में माया ठगिनी थी, आजकल आत्मा ठगिनी है। माया के मायाजाल को तो आप जान सकते हैं, आत्मा के आत्मजाल को देवता नहीं जान सके आप क्या चीज़ हैं। सुना गया है कि आजकल आत्मा की ठग विद्या को देखकर बनारस के ठगों ने अपनी दूकानों के शटर बंद कर लिए हैं। सुना गया है कि विदेशी संस्थागत निवेशक ऐसी आत्माओं को ऊँची तन्खवाहों पर भरती कर रहे हैं। जैसे हम कपड़े बदलते हैं, आजकल जैसे हम अपनी आस्थाएँ बदलते हैं वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है – कभी शासक दल का नेता होती है, कभी विरोधी दल की और कभी किसी बाहुबली के शरीर की। सुअवसर देख उनकी आत्मा फुँकारने लगी। मैंने कहा, “आप इस तरह क्यों फुँकार रहे हैं, देशसेवक?” वे बोले, “हमारी आत्मा पर बोझ बढ़ गया है। इतने एम.पी. के साथ एलेक्शन जीते, मंत्री-संत्री बनने की तो बात दूर कौनो कमेटी तक में नहीं रखा। हमने देश सेवा के लिए लाखों रुपया खर्च किया है। अब हम आत्मा की आवाज़ नहीं सुनेंगे और सुनाएँगे तो खाएँगे क्या? लोग तो चुनाव के बाद दूध-मलाई खाएँ और हम महाराणा प्रताप बने घास की रोटियाँ? बहुत ना इन्साफ़ी है। माना हम महाराणा प्रताप के वंशज के हैं पर हमें चुनाव लड़ना होता है। हम जनता के प्रतिनिधि हैं। हम तो अपनी आत्मा की आवाज़ सुनाकर रहेंगे ैय्ये।” मैंने पूछा, “किसी ने आपकी आत्मा की आवाज़ सुनी?” वे बोले, “पगला गए हैं क्या? कोई सुन लेता तो मंत्रालय में न बैठे होते। यहाँ लोग ससुरे तीन एम.पी. लेकर दो-दो मंत्रालय हथियाए बैठे हैं और हम तीस लेकर घास की भीख माँग रहे हैं। हमने आपसे कह दिया न कि दूसरे तो देशसेवा के नाम पर दूध-मलाई खाएँ और हम पहले घास की रोटियाँ खाएँ, नहीं चलेगा।” “आपको किसी ने भीख भी न दी तो?” “तो उचित अवसर का इंतज़ार करेंगे। आत्मा की आवाज़ कभी मरती नहीं है। कभी न कभी तो सुननी पड़ती है भैया, वरना प्रजातंत्र कैसे चलेगा सरकार कैसे चलेगी?” “तो अभी क्या करेंगे, आत्मा की आवाज़ का?” “अभी सुला देंगे।” आत्मा की आवाज़ कितनी सुविधाजनक हो गई है, जब चाहा जगा दिया जब चाहा सुला दिया जैसे घर की बूढ़ी अम्मा, जब चाहा मातृ-सेवा के नाम पर, दोस्तों को दिखाने के लिए ड्राईंग रूम में बिठा लिया और जब चाहा कोने में पटक दिया। पाँच साल में एक बार आधा बार आत्मा की आवाज़ सुन लेना ही तो प्रजातंत्र है, दोस्तो।