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User:JAY SINGH RAWAT

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'रूपकुण्ड झील के रहस्यमय कंकाल'--JAY SINGH RAWAT (talk) 17:27, 29 April 2013 (UTC)Bold text

- जयसिंह रावत-

विश्व की दुर्गमतम् और सबसे लम्बी धार्मिक पैदल यात्रा नन्दा देवी की राजजात की तैयारियां शुरू हो गयी हैं। इसके साथ ही एक बार फिर नृविज्ञानी, इतिहासकार और दुनियाभर के जिज्ञासु माथापच्ची में लग गये हैं कि इस यात्रा के मार्ग में पड़ने वाली रहस्यमय हिमालयी झील रूपकुण्ड के किनारे पाये गये मानव कंकाल आखिर किसके हैं और वे लोग इतनी बड़ी संख्या में मरने के लिये हिमालय की इतनी ऊंचाई पर क्यों गये। यह भी सवाल उठ रहा है कि कहीं मृतक मोक्ष के लिये आत्म हत्यारे या नर बलि के शिकार तो नहीं थे। ये आशंकाएं इसलिये उठ रही हैं क्योंकि पाण्डवों ने भी हिमालय से ही स्वर्गारोहण किया था और आदि गुरू शंकराचार्य ने भी केदारनाथ में ही प्राण विसर्जित किये थे। लगभग बारह सालों के अन्तराल में आयोजित होने वाली उत्तराखण्ड की विश्वविख्यात राजजात इस बार आगामी 30 अगस्त से शुरू होने जा रही है। कुल 280 किमी लम्बी यह दुर्गमतम्, जटिलतम और विशालतम् धार्मिक पैदल यात्रा समुद्रतल से 3200 फुट से शुरू हो कर 17500 फुट की ऊंचाई तक 19 पड़ावों से गुजरती है। परम्परानुसार इसका आयोजन 12 सालों में एक बार होना चाहिये, मगर बेहद जोखिमपूर्ण और खर्चीली होने के कारण इसका क्रम अक्सर टूट जाता है। राजजात के मार्ग में समुद्रतल से 16200 फुट की उंचाई पर स्थित हिमाच्छादित शिखरों से घिरी रहस्यमयी रूपकुण्ड झील के किनारे अब भी कई मानव कंकाल पड़े हैं। इन कंकालों के रहस्यों को सुलझाने के लिये भारत ही नहीें बल्कि दुनियां के कई देशों के वैज्ञानिक दशकों से अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि कोई रोकटोक न होने कारण देश विदेश के वैज्ञानिक बोरों में भर कर अतीत के रहस्यों को समेटे हुये इन नर कंकाल और अन्य अवशेषों को उठा कर ले गये हैं, फिर भी वहां अब भी कई मानव खोपड़ियां तथा कंकाल मौजूद हैं। इन कंकालों के साथ ही वहां आभूषण, राजस्थानी जूते, पान सुपारी, के दाग लगे दांत, शंख, शंख की चूड़ियां आदि सामग्री भी बिखरी पड़ी है। इन सेकड़ों कंकालों का पता सबसे पहले 1942 में एक वन रेंजर ने लगाया था। इतिहासकार यमुनादत्त वैष्णव ने अपने लेख ”रूपकुण्ड है रूपकुण्ड” में लिखा था कि अंग्रेज अधिकारियों ने इंग्लैण्ड स्थित ”क्यू गार्डन” के लिये इस क्षेत्र के दिव्य पुष्पों के बीज आदि ले जाने के लिये वन विभाग का एक दल इस क्षेत्र में भेजा तो खोज के दौरान रुद्रकुण्ड नामक कुण्ड में अनेकों मानव शव आधा दबे हुये दिखाई दिये। वहां कोई लाश आधी खुली विकराल रूप से एकटक देखती और कोई औंधे मुंह वर्फ में आधा दबी हुयीं थी। यह दृष्य देख कर दल के साथ बोझा ढोने गये पोर्टर डर के मारे भाग गये थे।

इस झील के कंकालों पर सबसे पहले 1957 में अमरीकी विज्ञानी डा0 जेम्स ग्रेफिन ने अध्ययन किया था। उस समय उसने इन कंकालों की उम्र लगभग 650 बताई थी। सन् 2004 में नेशनल जियोग्राफिक चैनल द्वारा ब्रिटेन और जर्मनी की प्रयोगशालाओं में कराये गये इन कंकालों के परीक्षण में ये कंकाल 9वीं सदी के तथा ये लगभग सभी एक ही समय में मरे हुये लोगों के पाये गये हैं। इनमें स्थानीय लोगों के कंकाल बहुत कम हैं। बाकी लगभग सभी एक ही प्रजाति के हैं। इनमें दो खोपड़ियां ऐसी भी मिली हैं जो कि महाराष्ट्र की एक खास ब्राह्मण जाति के डीएनए तथा सिर के कंकाल की बनावट से मिलते हैं। चैनल इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये कंकाल यशोधवल, उसकी रानियों, नर्तकियों, सैनिकों, सेवादारों या कहारों और साथ में चल रहे दो ब्राह्मणों के रहे होंगे।

इतिहासकारों के अनुसार धार्मिक मनोरथ की पूर्ति और नन्दादेवी राजजात यात्रा को सफल बनाने के लिये प्राचीनकाल में नरबलि की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी हुकूमत आने के बाद 1831 में प्रतिबन्धित कर दी गयी। उसके बाद अष्टबलि की प्रथा काफी समय तक चलती रही। इतिहासकार डा0 शिवप्रसाद डबराल और डा0 शिवराज सिंह रावत ”निसंग” के अनुसार नरबलि के बाद इस यात्रा में 600 बकरियों और 25 भैंसों की बलि देने की प्रथा चलती रही, मगर इसे भी 1968 में समाप्त कर दिया गया। शिप्रसाद डबराल ने ”उत्तराखण्ड यात्रा दर्शन” में लिखा है कि नन्दा महाजाति खसों की आराध्य देवी है। डबराल ने लिखा है कि ”ब्रिटिश काल से पहले प्रति बारह वर्ष नन्दा को नरबलि देने की प्रथा थी। बाद में इस प्रथा को बन्द कर दिया गया, मगर दूधातोली प्रदेश में भ्रमण के दौरान मुझे सूचना मिली कि उत्तर गढ़वाल के कुछ गावों में अब नर बलि ने दूसरा रूप धारण कर लिया। प्रति 12 वर्ष में उन गावों के सयाने लोग एकत्र हो कर किसी अतिवृद्ध को नन्दा देवी को अर्पण करने के लिये चुनते हैं। उचित समय पर उसके केश, नाखून काट दिये जाते हैं। उसे स्नान करा कर तिलक लगाया जाता है, फिर उसके सिर पर नन्दा के नाम से ज्यूंदाल (चांवल, पुष्प, हल्दी और जल मिला कर) डाल देते हैं। उस दिन से वह अलग मकान में रहने लगता है और दिन में एक बार भोजन करता है। उसके परिवार वाले उसकी मृत्यु के बाद होने वाले सारे संस्कार पहले ही कर डालते हैं। वह एक वर्ष के अन्दर ही मर जाता है।“ उत्तराखण्ड में नरबलि के बाद अब पशुबलि भी समाप्ति की ओर है मगर उत्तराखण्ड सरकार की मदद से चलने वाली नन्दादेवी राजजात की सामन्ती व्यवस्था और जातिवाद अब भी टस से मस होने को तैयार नहीं है। इस यह यात्रा के आयोजक अब भी स्वयं को राजकुंवर मानते ह,ैं जबकि सेकड़ों साल पहले उनके राज परिवार से जुड़े होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। डा0 डबराल आदि के अनुसार रूपकुण्ड दुर्घटना सन् 1150 के आसपास हुयी थी, जिसमें राजजात में शामिल होने के लिये पहुंचे कन्नौज नरेश जसधवल या यशोधवल और उनकी पत्नी रानी बल्लभा समेत सारा लाव लस्कर मार गया था। इनके कंकाल आज भी रूप कुण्ड में बिखरे हुये हैं। नौटी में राजजात के सन् 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968 एवं 1987 में आयोजित होने के अभिलेख उपलब्ध हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रचलित मान्यतानुसार यह यात्रा हर 12 साल में नहीं निकलती रही है। कुरूड़ से प्राप्त अभिेलेखों में 1845 तथा 1865 की राजजातों का विवरण है। कुरूड़ के पुजारी और शिव प्रसाद डबराल तथा राहुल सांकृत्यायन जैसे प्रख्यात इतिहासकार नन्दाजात को पंवारों या कुवरों की नहीं बल्कि खसों की प्राचीनतम तीर्थयात्रा मानते हैं। इस रोमांचकारी यात्रा के दौरान लोहाजंग ऐसा पड़ाव है, जहां आज भी बड़े पत्थरों और पेड़ों पर लोहे के तीर चुभे हुये हैं। कुछ तीर संग्रहालयों के लिये निकाल लिये गये हैं। इस स्थान पर कभी भयंकर युद्ध होने का अनुमान लगाया जाता है। इसी मार्ग पर 17500 फुट की ऊंचाई पर ज्यूंरागली भी है जिसे पार करना बहुत ही जोखिम का काम है। इतिहासकार मानते हैं कि कभी लोग स्वर्गारोहण की चाह में इसी स्थान से महाप्रयाण के लिये नीचे रूपकुण्ड की ओर छलांग लगाते थे। यमुना दत्त वैष्णव ने इसे मृत्यु गली की संज्ञा दी है। यहां से नीचे छलांग लगाने वालों के साथ ही दुर्घटना में मारे गये सेकड़ों यात्रियों के कंकाल नीचे रूपकुण्ड में मिले हैं, जिनकी पुष्टि डीएनए से हुयी है। विद्वानों का मानना है कि पशु बलि के साथ ही नरबलि प्राचीनकाल में दुनियांभर में प्रचलित थी। धार्मिक अनुष्ठानों में पशु बलि तो आज भी प्रलित है। यही नहीं मनोरथ पूरा करने के लिये अन्धविश्वासी लोग आज भी चोरी छिपे मानव बलि दे देते हैं। उत्तराखण्ड में ही महान योद्धा माधोसिंह भण्डारी द्वारा पहाड़ के अन्दर सुरंग बना कर मलेथा की ऐतिहासिक गूल के निर्माण के समय पुत्र की बलि का उल्लेख बहुत चर्चित है। हालांकि इतिहासकार शूरवीरसिंह पंवार ने पुत्र बलि की बहुचर्चित मान्यता को गलत बताया है। हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर में उलटी लटकी एक नग्न महिला की आकृति बनी है जिसके पैर फैले हुए हैं तथा गर्भ से एक पौधा निकल रहा है। एक चीनी पौराणिक कथा है कि चीन की महान दीवार के नीचे हजारों लोग दफ़न हैं। एज्टेक वॉरफेयर के लेखक रॉस हास्सिग के अनुसार सन् 1487 में टेनोक्टिटलान के महान पिरामिड के पुनर्निर्माण के लिए, एज्टेकों ने चार दिनों के अन्दर लगभग 80,400 बंदियों की बलि दे दी। मंगोलों, स्काइथियनों, प्रारंभी मिस्र के लोगों तथा कई मेसोअमेरिकन नायक अपने साथ अपना घरेलू सामान के साथ नौकरों तथा रखैलों को मार कर उन्हें भी अगली दुनियां के लिए ले जाते थे। प्राचीन मेसोपोटामिया के शाही मकबरों में भी अनुचर बलिदान की पुष्टि होती है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ईराक में लगभग एक शताब्दी पूर्व प्राप्त उर के शाही कब्रिस्तान से प्राप्त खोपड़ियों के नवीन अध्ययन से पता चलता है कि मालिक की मौत के बाद उसके परिचारकों की खोपड़ियों में छेद कर मारा जाता था। बाइबिल में मानव बलि का एक और उल्लेख जजेस 11 में यिप्तह की पुत्री के बलिदान के रूप में मिलता है। यिप्तह ईश्वर से यह प्रण करता है कि जब वह विजयी होकर वापस जायेगा तो जो भी सबसे पहले दरवाज़े पर उसका अभिवादन करेगा, वह उसका बलिदान करेगा। रूसी प्राथमिक क्रॉनिकल के अनुसार युद्ध-कैदियों का बलिदान पेरून, जो कि युद्ध के स्लाविक देवता थे, के समक्ष कर दिया जाता था। अगस्त में शुरू होने जा रही राजजात का लोग उत्सुकता से इन्तजार तो कर रहे हैं मगर इसके साथ ही रूपकुण्ड में बिखरे रहस्यमय कंकालों और अन्य पुरातत्व सामग्रियों की सुरक्षा पर भी सवाल उठने लगे हैं। इसके साथ ही इस बेहद क्षणभुगुर पारितंत्र वाले हिमालयी क्षेत्र के ब्रह्मकमल जैसे दुर्लभ होते जा रहे पादपों और लुप्तप्राय जड़ी बूटियों के अस्तित्व के लिये भी चिन्ताऐं प्रकट की जानें लगी हैं, क्योंकि लोग यात्रा के दौरान बड़े पैमाने पर इन दुर्लभ पादपों को उखाड़ कर लाते हैं। कुछ लोकतंत्रकामी इसलिये भी परेशान हैं कि राज्य सरकार आज्ञानतावश सामन्तवाद की आपत्तिजनक व्यवस्थाओं को भी मान्यता दे रही है। इस यात्रा में अनुसूचित जातियों का प्रवेश निषेध होता रहा है। राज्य सरकार की इस निषेध को मौन स्वीकृति मिली हुयी है।

-जयसिंह रावत पत्रकार ई- 11, फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर, डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून। मोबाइल- 09412324999 रंलेपदहीतंूंज/हउंपसण्बवउ