Jump to content

User:संजय परगाँई

From Wikipedia, the free encyclopedia

मैं संजय परगाँई, क्षेत्र ओखलकाण्डा जनपद नैनीताल देवभूमि उत्तराखंड का निवासी हूं ‌‌देवभूमि उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, पितृभूमि, जन्मभूमि और शिक्षणभूमि रही है। इस धरा और मिट्टी से मुझे अत्यन्त लगाव है। मैं एक किसान पुत्र हूं और मुझे मिट्टी की ताकत अत्यंत करीब से मालूम है। मेरे परदादा, दादा और मेरे पिता जी ने देवभूमि उत्तराखंड के एक छोटे से गांव में अपना जीवन बतौर कृषक के जिया है और मेरी भी अपने गांव की मिट्टी से अनेक उम्मीदें और आशाएं हैं। मैं खुद को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता हूं क्योंकि मेरा जन्म उस भूमि पर हुआ है, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है। मेरे पिता जी जिनका नाम श्री सतीश चन्द्र है जो कृषि के साथ-साथ एक पुरोहित भी हैं और संगीत, गायन, जागर आदि विधाओं में कुशल हैं, एक अच्छा मंच ना मिलने की वजह और समय, परिस्थिति, घर-गृहस्थी की वजह से इस क्षेत्र में एक अच्छे मुकाम तक नहीं पहुंच पाए। मेरा जन्म 30 जून 2002 को हुआ है लेकिन बचपन में जब मेरा विद्यालय में दाखिला कराया गया तब कुछ वजहों से मेरा जन्मदिन 14 अप्रैल 2004 कर दिया गया। मैंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा दसवीं कक्षा तक अपने गाँव के ही सरकारी विद्यालयों से प्राप्त की है उसके बाद दो साल इंटरमीडिएट के मैंने गोबिंद बल्लभ पंत राजकीय इंटरमीडिएट कालेज ओखलकाण्डा से की है और अभी मैं महाविद्यालय से अपनी स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रहा हूं। वैसे मैं बचपन से मेहनती और तीव्र बुद्धि का छात्र रहा हूँ और पढ़ाई में अव्वल ही रहा हूं। मुझे लिखना बहुत अच्छा लगता है। मैं कविता, शायरी, गीत, गजल, नज़्म, कहानी, किस्से, लेख आदि लेखन की विधाएं लिखता हूं, लेकिन मैंने अपने लिखे को ज्यादा बाहर तक नहीं फैलाया सब कुछ खुद तक ही सीमित रखा। अपने लिखे हुए का सिर्फ 5-10 फीसदी ही सोशल मीडिया में पोस्ट किया है। मेरी माताजी मुझे हर लेखन कार्य में बहुत ज्यादा समर्थन देती हैं जब तक मैं अपना लेख उन्हें बोलकर नहीं सुना देता तब तक मैं अपना लिखा हुआ अधूरा और बेकार ही समझता हूं। मेरी माताजी सिर्फ प्राइमरी लेवल तक ही विद्यालय पढ़ी हैं उनका नाम श्रीमती दीपा देवी है। मेरी शालीनता, मेरी सादगी, मेरा सरल स्वभाव और मेरे बोलने की शैली सब कुछ मेरी माँ की वदौलत हैं क्योंकि मैंने यह सब अपनी माँ जी से ही सीखा है। मेरा घर गाँव में, हरे भरे पेड़ों की छांव में और खुली फिजाओं में विराजमान है। मैं पौराणिक महत्वों और संस्कृति को बचाए रखना चाहता हूं और उसे वापस लाना चाहता हूं जिसके लिए मैं अपनी दादी अम्मा या कई बुजुर्गों के साथ घंटों घंटों तक बातों में खोए रहता हूं। जिससे मुझे मेरे बुजुर्गों के समय की बातें पता चल पाती हैं। मेरी दादीजी का नाम श्रीमती किशनी देवी है। मुझे अफसोस है कि मैं अपने दादाजी को नहीं देख पाया। लेकिन जब कभी दादा जी को ना देखने का अफसोस होता है तो मैं अपने नैनिहाल चले जाता हूं जहां नानी जी के साथ बैठकर घंटों तक ज्ञान का अमृतपान करता हूं, मेरे नानाजी ही मुझे नानी जी की तरफ से भी कहानियां सुनाते हैं क्योंकि मेरी नानीजी मेरे धरती में आने से पहले ही भगवान के घर चली गई। मेरे नानाजी का नाम श्री भोला दत्त कुड़ाई है। मेरी सारी दिनचर्या मेरे पारिवारिक जनों के साथ व्यतीत होती है, जिसमें मेरे छोटे भाई बहनों की अहम भूमिका रहती है। मैं लेखन के अलावा एडिटिंग को भी अपना एक अहम समय देता हूं, मैं गणित और भौतिक विज्ञान जैसे विषयों का छात्र हूं तो मुझे ज्यादा अतिरिक्त समय नहीं मिल पाता है। लेकिन खाली समय में मैं अपने दिमाग को तरोताजा और तनावरहित रखने के लिए अपनी कार्य कुशलता या रूचियों में व्यतीत करता हूं। मुझे उम्मीद आपको ये मेरा आत्म लेख पसंद आया होगा।