Talk:Hari caste
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हाडी ( HARI / HADI / HADDI )एक अति प्राचिन भातीय मूलनिवासी जाति है जिनका जिक्र विदेशीयो इतिहासकारो द्वारा भारतीय इतिहास के स्रोत मे मिलता है । हाडी वह उपेक्षित भारतीय समुदाय है जिन्हे हिन्दु वर्ण व्यवस्था तक मे स्थान प्राप्त नही था । इस समुदाय को वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया था । इनको व्यपार , कृषि , विद्या ,अच्छी भोजन यहा तक की धन रखने का अधिकार तक नही था । ये लोग गाँव , नगर , कस्बो के बाहर झुग्गी झोपडा बना कर जिवन यापन करते थे उनके घरो मे विशेष चिन्ह हुआ करते थे ताकि अन्य समुदाय के लोगो को यह मालुम चल सके की ये घरें हाडी जातियों का है ओर अन्य लोग वहा से दुर रहें
गाँव , शहरो के सडको पर उनलोगो को अनुमति नही थी सिर्फ दोपहर के समय वे लोग सडको पर आते थे व भी उनलोगो को आते समय जोर जोर से आवाज निकालनी होती थी , ताकि अन्य लोग उसको न देख सके ।
उनलोगो को कही कही कमर मे झाडु व गले मे मटका ( मिट्टी की हांडी /मिट्टी का छोटा घडा )बाधकर रखना होता था ताकि उनके पद चिन्ह सडको पर न रहे, कमर की झाडु से पद चिन्ह मिट जाए ओर थुकने के लिए गले मे हांडी ताकि वह कही थुक न सके ।
हाडी जाति के लोग गाँव , नगर व कस्बे के सडक को साफ सफाई , मरे हुए पशु मवेशियो को हटाने का कार्य आदि घृणित कार्य कर अपने ओर अपने परिवार का लालन पालन किया करते थे
HADI (HARI / HADI / HADDI) is a very ancient Native native caste, which is mentioned by foreign historians at the source of Indian history. Hadi is the neglected Indian community, which was not available till the Hindu Varna system. This community was excluded from the character system. They did not even have the right to invest in business, agriculture, education, good food till then. These people used to make a slum hut outside the village, town, town of Kasab, and used to have special symbols in their houses so that the people of other communities could run to find that these houses belong to the Hadi castes and others should stay away from it.
They were not allowed on the roads of the village, the city, they used to come on the road only in the afternoon and even when those people came, they had to loudly raise their voice so that other people could not see him.
They had to keep the stomach in the same waist and in the throat, so that their posts should not be on the road, the marks of the waist should be erased from the waist and the thong should be used for thinning. She could not spit anything.
The people of the Hadi caste used to clean the streets of the village, town and town and perform the abominable task of removing dead animals and caring for their family.
भारत में पश्चिम बंगाल , बिहार झारखण्ड , ओड़िसा अन्य राज्यों मे इस जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त हैं , हिमाचल प्रदेश मे अन्य पिछड़ा वर्ग मे भारत सरकार इसकी मान्यता देती हैं , मैंने अपने लेख मे लिखा की हाडी जाति एक अति प्राचीन जाति है और वह भारत की मूलनिवासी जातियों मे एक है , क्यों की जब अलबरूनी ने ‘तहकीक-ए-हिन्द या ‘किताबुल हिन्द‘ नामक पुस्तक की रचना की थी। इस पुस्तक में हिन्दुओं के इतिहास, समाज, रीति रिवाज, तथा राजनीति का वर्णन है। अबू रयहान, पिता का नाम अहमद अल-बरुनी) या अल बेरुनी (973-1048) एक फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक था। अल बेरुनी की रचनाएँ अरबी भाषा में हैं पर उसे अपनी मातृभाषा फ़ारसी के अलावा कम से कम तीन और भाषाओं का ज्ञान था - सीरियाई, संस्कृत, यूनानी। वो भारत और श्रीलंका की यात्रा पर 1017-20 के मध्य आया था। ग़ज़नी के महमूद, जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किये, के कई अभियानों में वो सुल्तान के साथ था। अलबरुनी को भारतीय इतिहास का पहला जानकार कहा जाता था। अलबरूनी ने हमारी जाति का जिक्र अपनी किताबो मे किया था , जब हजारो वर्ष पहले हाडी जाति का अस्तिव भारत मे था तो इस बात को कहना गलत नहीं होगा ।
आज भी केंद्र सरकार की नियुक्ति के लिए हाडी जाति के अभियार्थी अनुसूचित जाति के कोटि के लिए मान्य है
अस्पृश्य भारत का एक अछूत मानव परिवार, जिनके संस्पर्श से अशौच होता है, अस्पृश्य कहलाते हैं। कुछ व्यक्तियों का स्पर्श कुछ सीमित काल के लिए ही निषिद्ध है; यथा, मृत्यु एवं जन्म के अवसर पर सर्पिड और समानोदको का अथवा रजस्वला स्त्रियों का। किंतु कुछ जातियाँ सर्वदा ही साधारणत: स्पर्श के द्वारा अशौच का कारण हैं और इन्हें ही अछूत अथवा अस्पृश्य[1] कहा जाता है।[2] 'अंत्य'[3] तथा 'ब्रह्म'[4] भी इनके अभिधान थे। अंत्यावसायी[5] इस कोटि में निम्नतम थे। मिताक्षरा[6] अंत्यजों का दो विभाग करती है-प्रथम उच्च अत्यंज और द्वितीय निम्न सांत अंत्यावसायी जातियाँ-चांडाल, श्वपच, क्षत्ता, सूत, वैदेहिक, मागध और आयोगव। अंत्यज की सूचियाँ स्मृतियों में भिन्न-भिन्न उपलब्ध होती हैं। किंतु चमार, धोबी, कैवर्त, मेद, भिल्ल, नठ, कोलिक प्राय: सभी में पाए जाते हैं। इस सूची का समर्थन अलबेरूनी[7] भी करता है। उसके अनुसार अछूत की दो श्रेणियाँ थीं: पहली में केवल आठ जातियाँ-धोबी, चमार, बसोर, नट, कैवर्त, मल्लाह, जुलाहा और कवच बनानेवाले तथा दूसरी कोटि में-हाडी, डोम और बधतु आते हैं। आधुनिक काल में इनके दलित,[8] अनुसूचित[9] और हरिजन नाम भी प्राप्त हुए हैं।
प्रतिलोमप्रसूति, वैदिक परंपरा से बिलगाव, आरूढपतन (संन्यासी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश), देवकलवृत्ति, गोमांसभक्षण, आदिम जातियों की सांस्कृतिक हीनता, हिंसक एवं अछूत व्यवसाय, कबीले से अलग हो जाना आदि अस्पृश्यता के कारण बतलाए गए हैं। किंतु इनमें से किसी को भी एकमेव कारण नहीं माना जा सकता। साधारणत: ऐसा प्रतीत होता है कि सांस्कृतिक हीनता, जातिगत विभिन्नता एवं अछूत व्यवसाय के त्रिविध तत्वों ने इनमें विशेष योग दिया।
वैदिक काल में अछूत प्रथा के अस्तित्व के प्रमाण नहीं मिलते। पौल्कस,[10] बीभत्स एवं चांडाल और निषाद[11] पुरुषमेध की बलि के योग्य समझे गए। छांदोग्य में शूकर तथा कुत्ते के समान ही चांडाल भी 'कपूय' माना गया। उपमन्यु के अनुसार निषाद पंचमवर्ण था, किंतु 'विश्वजित्' का याजन निषादों के बीच में तीन रोज तक निवास करता था।[12]
सूत्रकाल में यह प्रथा स्थिर हो गई थी। चांडाल के स्पर्श एवं संभाषण से क्रमश: सचैल स्नान और आचमन करने पर शुद्धि होती थी। चांडालीसंगमन से ब्राह्मण चांडाल हो जाता था एवं कठिन प्रायश्चित से शुद्ध होता था। वह 'अंत' अर्थात् ग्राम के अंत में रहता था। अन्य अंत्यजों की स्थिति अच्छी थी। क्रमश: धार्मिक पवित्रता की भावना बढ़ती गई और तदनुरूप ही अस्पृश्यता की प्रथा ने जोर पकड़ा। नमु.[13] के अनुसार अछूतों को ग्रामनगरों के बाहर चैत्य वृक्षों के नीचे, श्मशान, पहाड़ों और जंगलें में रहना चाहिए। मृतकों के वस्त्र, फूटे हुए भांड और लोहे के अलंकार इनके उपयोज्य थे। प्राय: यही स्थिति बाद की स्मृतियों में है। लघुस्मृतियों के काल में अंत्यजों की सूची बन गई थी जिसमें सात से लेकर 18 जातियाँ तक परिगणित की गई।
बौद्ध साहित्य में अस्पृश्यता-निम्नस्तरीय वर्ग के लिए 'हीन सिप्प' और 'हीन जाति' के उल्लेख मिलते हैं। 'हीन सिप्प' में बंसोर, कुंभकार, पेसकर (जुलाहा), चम्मकार (चमार), नहपित (नाई) तथा 'हीन जाति' में चांडाल, पुक्कलस, रथकार, वेणुकार और निषाद हैं। द्वितीय वर्गवालों की स्थिति अच्छी नहीं थी। वे 'बहिनगर' अथवा 'चांडालग्रामक'[14] में निवास करते थे। चांडालों की तो अपनी अलग भाषा भी थी। चुल्लधम्मजातक के अनुसार वे पीत वस्त्र और रक्त माल तथा कंधे पर कुल्हाड़ी और हाथ में एक कटोरा रखते थे। चांडाल स्त्रियाँ जादू टोने में बहुत दक्ष थीं। बांसुरी बजाना तथा शवदाह करना इनके प्रमुख कार्य थे। बौद्धपरंपरा में अस्पृश्यता अपेक्षाकृत कम थी। दिव्यावदान[15] में बहुश्रुत धर्मज्ञ विद्वान् पुष्करसारी की पुत्री का विवाह चांडालराज त्रिशंकु के साथ वर्णित है। वज्रसूची[16] चांडाली से उत्पन्न विश्वामित्र और उर्वशी से जनित वसिष्ठ की ओर इंगित कर अस्पृश्यता पर आघात करती है। महापरिनिब्बानसुत्त के अनुसार कम्मारपुत्त छुंद का भोजन बुद्ध ने मृत्यु के पूर्व किया था। आनंद ने चांडालकन्यका के हाथ का जलपान किया था।[17] 'शार्दूलकणविदान' का चांडालराज त्रिशंकु स्वयं तो वेद और इतिहास में पारंगत था ही, उसने अपने पुत्र शार्दूलकर्ण को वेद, वेदांग, उपनिषत्, निघंटु इत्यादि की शिक्षा दिलवाई थी। ब्राह्मण द्वारा प्रज्वलित श्रौताग्नि और चांडाल, व्याध आदि के द्वारा उत्पन्न साधारण अग्नि में कोई अंतर नहीं माना गया (अस्सलायनसुत्त, मज्झिमनिकाय)। बुद्ध का संदेश था-निर्वाण की प्राप्ति चांडाल, पुक्कस को भी हो सकती है-खत्तिया ब्राह्मण वेस्सा सुद्दा चंडाल पुक्कसा, सब्बे सोरता दांता सब्बे वा परिनिब्बुता।[18]
जैन वाङ्मय में अस्पृश्यप्रथा-आदिपुराण के अनुसार कारु (शिल्प) द्विविध हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य। स्पृश्य कारुशालिक (जुलाह), मालिक (माली), कुंभकार, तिलंतुद (तेली) और नापित हैं। अस्पृश्य शिल्प रजक, बढ़ई, अयस्कार और लौहकार हैं। डोंब, चांडाल और किणिक इनसे भी नीचे थे। व्यवहार-सूत्र-भाष्य (94) में डोंब का कार्य गाना, सूप आदि बनाना बतलाया गया है।
तंत्र और अस्पृश्य-साधारणत: शाक्त तंत्रों में जात-पाँत और छूत-छात के बंधन शिथिल थे। कुलार्णवतंत्र[19] के अनुसार 'प्राप्त तु भैसरवे चक्रे वर्णा द्विजातय:'। स्मार्त शैव और स्मार्त वैष्णव स्पृश्यास्पृश्य का विचार रखते थे।
मध्यकालीन वैष्णव संतों ने जातिप्रथा और अस्पृश्यता का तिरस्कार किया। कबीरपंथ में शूद्र और कुछ अछूत वर्ग के संत थे। अन्य संतों मेंस रविदास, नंदनर और चोखमल उल्लेख्य हैं।
भारत के बाहर अस्पृश्यता-स्पर्श से होनेवाला अशौच विभिन्न स्तर का होता है। कभी-कभी अशौच में केवल शारीरिक अशुचि की भावना रहती है और कभी उसके साथ ही साथ धार्मिक पवित्रता में क्षति और अभाव की धारणा। प्रस्तुत प्रसंग में अशौच से तात्पर्य अशुचि (अपवित्रता) और धार्मिक पवित्रता में क्षति (पॉल्यूशन) युगपत् दोनों अर्थों से है। इस प्रकार के स्पर्शाशौच की प्रथा मिस्र, फारस, बर्मा, जापान इत्यादि देशों में भी थी। प्राचीन मिस्र में सुअर पालनेवाले अशुद्ध समझे जाते थे और उनका स्पर्श निषिद्ध था। वे मंदिरों में प्रविष्ट भी नहीं हो सकते थे। प्राचीन फारस का मज्द धर्म का पुजारी अन्य धर्मवालों के संपर्क से अशुद्ध हो जाता था और शुचिता प्राप्त करने के लिए उसे स्नान करना आवश्यक था। बर्मा में सात प्रकार के निम्नवर्गीय थे जिनमें 'संदल' (सं. चांडाल?) अछूत माने जाते थे। जापान के 'एत' और 'हिन्न' वर्गीय व्यक्तियों का स्पर्श वर्जित था।
19वीं शताब्दी ईसवी में राजा राममोहन राय और स्वामी दयानंद ने अछूतप्रथा के निवारण का प्रयत्न किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1917 में अछूतप्रथा की समाप्ति का प्रस्ताव पास किया। महात्मा गांधी ने कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रम में अछूतोद्धार को सम्मिलित कर इस कुत्सित प्रथा की ओर व्यक्तियों का ध्यान विशेष रूप से खींचा। हरिजनों के द्वारा जनपथ का व्यवहार और मंदिरप्रवेश का आँदोलन प्रारंभ हुआ। सन् 1932 में महात्मा गांधी ने 'कम्यूनल अवार्ड' में अछूतों को सवर्ण हिंदुओं से अलग करने के प्रयत्न के विरुद्ध अनशन किया तो 'पूना पैक्ट' होने पर टूटा। इस अनशन ने हरिजनों की स्थिति के संबंध में देशव्यापी लहर फैला दी। इसी समय 'हरिजन सेवक संघ' की स्थापना हुई। भारतीय संविधान के अनुसार करीब 429 वर्ग अछूत माने गए हैं। विभिन्न प्रदेशों में विभन्न वर्ग और व्यवसाय अनेक नामों से अछूतों में परिगणित होते हैं। इन अछूतों में उच्चवाच स्तर का तारतम्य है और भोजन तथा विवाह के संबंध में वे एक दूसरे से अलग रहते हैं। इनके देवालय सवर्ण हिंदुओं के मंदिरों से अलग होते थे और ग्राम्य देवता तथा दुर्गाशक्ति के रूप ही प्राय: विविध स्वरूपों में पूज्य थे। किंतु अब इनमें संस्कृतिकरण-उच्च माने जानेवाले वर्गों की संस्कृति के अनुकरण-की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर हो रही है।
भारतीय संविधान ने अछूतप्रथा समाप्त कर दी है और किसी भी रूप में उसका पालन या आचरण निषिद्ध घोषित कर दिया है।[20] सार्वजनिक स्थानों--कुएँ, जलाशय, होटल, सामाजिक मनोरंजन के स्थानों-में उनका प्रवेश विहित माना गया[21] है। उनके व्यावसायिक और औद्योगिक स्वातंत्य की सुरक्षा की गई[22] है। इनके अतिरिक्त प्राय: सभी प्रदेशों ने अस्पृश्यतानिवारक कानून बना लिए हैं। इस प्रकार विधान ने अछूतों की सामाजिक, व्यावसायिक एवं औद्योगिक परंपरानुगत अयोग्यताओं को दूर कर दिया है। साथ ही साथ, लोकसभा और प्रादेशिक विधानसभाओं में जनसंख्या के अनुसार कुछ वर्षों तक विशेष प्रतिनिधि के निर्वाचन का अधिकार सुरक्षित रखा गया है।[23] हरिजन सेवक संघ, भारतीय डिप्रेस्ड क्लासेज़ लीग, हरिजन आश्रम (प्रयाग) कुछ प्रमुख संस्थाएँ हैं जो हरिजनोद्धार में दत्तचित्त हैं। — Preceding unsigned comment added by 122.252.255.104 (talk) 06:45, 22 November 2018 (UTC)