Draft:Pandit Ganga Pasad Pathak
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Pandit Ganga Prasad Pathak
[edit]पंडित गंगा प्रसाद पाठक का जन्म संगीतजीवी परिवार में हुआ था। संगीत की नगरी ग्वालियर में ऐसे कई संगीतजीवी परिवार थे और हैं जिनकी आजीविका संगीत से ही चलती थी। इन परिवारों में ध्रुपद ख्याल गायक तो थे ही जिनका इतिहास में भरपूर उल्लेख मिलता है, परन्तु इन कलाकरों के संगतकारों, विशेषकर तबला वादकों, सारंगी वादकों आदि के संदर्भ में कृपणता दिखाई देती है। संगीत की मेहफिलों में इनकी संगत की अनिवार्यता होती है। ध्रुपद-धमार में पखावज संगत की अनिवार्यता होती है। ध्रुपद-धमार में पखावज संगत एवं ख्याल गायन में तबला एवं सारंगी की संगत अनिवार्य थी। सारंगी एवं तबला संगत ही गायन की कसौटी है जिसमें गायक को खरा उतरना होता है। शोधार्थी यह कहना चाहती है कि कुशल संगतकारों को हमेशा से ही दोयम दर्जे का समझा जाता रहा है, जबकि संगतकारों के बिना गायक का गायन अधूरा की माना जाता है। उस समय ऐसे संगीतजीवी अनेक परिवार थे जो संगीत में उच्च स्थान प्राप्त थे। साथ ही परिवार की संगीत शिक्षा उत्तराधिकार में सौंपते थे। अतः ऐसे संगीतजीवी परिवार में पं. गंगा प्रसाद पाठक का परिवार है, जो अपनी चार/पांच पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह परिवार जिवाजी राव सिंधिया (सन् 1843-1886) के पूर्व से ही ग्वालियर में था एवं अपनी संगीत कला को उत्तराधिकार के रूप में सौंपता आ रहा है।
Life After Birth
[edit]आपके जन्म के तीन/चार (लगभग 1904-05) वर्ष बाद ही आपके पिताजी श्री टेकराम (टीकाराम) का निधन हो गया। यह घटना परिवार के लिए अत्यंत दुखद थी। आपके पिताजी सारंगी वादक एवं गायक थे एवं सिंधिया राज्य में सेवारत थे। आपका परिवार लश्कर / ग्वालियर के तारागंज मोहल्ले में अपने निजी मकान में रहता था जो आज भी उनके सुपुत्र श्री प्रकाश पाठक के अधिकार में है। तात्कालीन समय में श्री टेकराम जी के अप्रत्याशित एवं दुःखद मृत्यु की घटना से उनकी पत्नि श्रीमती सुमित्रा देवी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।
आपने साहस एवं धैर्य के साथ सम्पूर्ण कष्टों का सामना किया। साथ ही अपने बालक गंगाप्रसाद की परवरिश पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। पति श्री टेकराम के निधन से अनेक प्रकार की समस्याऐं एक साथ सामने आ गईं। इनमें सर्वप्रथम परिवार का भरण-पोषण, कुटम्बीजनों से आपसी कलह, बालक गंगाप्रसाद की शिक्षा-दीक्षा एवं सामाजिक बुराइयों (व्यसनों) से सुरक्षा आदि, परिवार में पुत्र एवं देवर श्री रम्मू पहलवान का भरण-पोषण ही विशेष महत्वपूर्ण था, परिवार के अन्य रिश्तेदार भी तारागंज मोहल्ले में आस-पास ही रहते थे, अर्थात् संगीतजीवी कई परिवार उस मोहल्ले (पायगा) में रहते थे, जिनकी आपस में रिश्तेदारी भी थी। सभी के निजी मकान थे।
इन कुटुंबीजनों में चचरे, ममेरे, फुफेरेभाई, बोआ आदि सभी रहते थे। ये सभी आपसी ईर्ष्या, द्वेष से परिपूर्ण थे। ऐसे वातावरण का प्रभाव बालक गंगाप्रसाद पर पड़ना स्वाभाविक था। प्रत्येक परिवार अपने बच्चे की प्रगति ही चाहता था। भले ही बच्चा कमजोर हो, उदंड हो, वह अपने माता-पिता का लाडला ही होता है। श्रीमती सुमित्रा देवी के पक्ष मैं एक विशेषता थी कि परिवार का पैतृक मकान था (जो आज भी है) जिससे हर प्रकार की आपदा का बचाव एवं परिवार की निजी जिंदगी सुरक्षित थी।
आपने इस प्रकार की पारिवारिक, सामाजिक एवं मानसिक परेशानियों का प्रभाव अपने पुत्र गंगाप्रसाद पर नहीं आने दिया। ना ही अपनी सहनशीलता एवं जागरूकता पर विपरीत प्रभाव पड़ने दिया। अपने बालक को संगीत शिक्षा एवं प्रगति के लिए प्रोत्साहित करती रहीं, विशेष उल्लेखनीय तथ्य ये भी है कि उसी मोहल्ले में (तारागंज) पं. कालका प्रसाद ध्रुपद गायक भी रहते थे।
वे गायक तो थे ही पखावज भी अच्छा बजाते थे। बालक गंगाप्रसाद उन्हें चाचा कहते थे, एवं पारिवारिक रिश्ता भी था। ऐसी विषम परिस्थितियों में पं. कालका प्रसाद ने उन्हें पखावज वादन की शिक्षा देना आरंभ किया। साथ-साथ स्वर-ज्ञान का अभ्यास भी आरंभ कर दिया। परन्तु यह क्रम भी ज्यादा न चल सका। पं. कालका प्रसाद का निधन भी सन् 1910-11 के आस-पास श्री माधव राव सिंधिया के काल में हो गया।
अतः श्रीमती सुमित्रा देवी को बालक की संगीत शिक्षा का प्रश्न उभर कर सामने आ गया। उस समय संगीत समाज में एक से एक अच्छे संगीतकार तो थे, परन्तु व्यसनी भी थे। वे नये शिष्यों को अपने व्यसन में फंसाने का प्रयत्न करते थे। ग्वालियर में हिन्दी/ मराठी भाषी कलाकार (गायन/वादक) भांग छानने/पीने के व्यसनी थे। संध्या के समय भांग घोंटते एवं पीते थे। इसके विपरित हिन्दी भाषी गायक / वादक सुरा (सोमरस) के आदी थे। प्रतिदिन सुरा का सेवन उनकी आदत में समाहित था।
अतः ऐसे संगीतज्ञों से बालक गंगा प्रसाद को बचाना भी आवश्यक था। श्रीमती सुमित्रा देवी इन गतिविधियों से भली-भांति परिचित थी, इसलिये बालक पर कड़ा अनुशासन रखती थीं, जिससे बालक गंगाप्रसाद की बुद्धि परिपक्व होती गई। इसके अतिरिक्त शोधार्थी ने उस समय के सामाजिक परिवेश का भी अध्ययन किया एवं वर्तमान गुणीजनों से उस संदर्भ में वार्तालाप कर जो निष्कर्ष आया उसे शोध प्रबंध में समाहित किया है जिससे उस समय के संगीत समाज की वास्तविक स्थिति की जानकारी संगीत जगत को हो सके। उस समय बीड़ी, सिगरेट पीने-पिलाने एवं पान खिलाने का चलन था जो सम्मान सूचक था। प्रत्येक घर में पान-दान होता था जिसमें पान, सुपारी, चूना, कत्था, लोंग, इलायची, तम्बाखू आदि सब कुछ होता था, जो पान के लिए उपयोगी था।
अर्थात् आंगतुकों को इसी से सम्मानित किया जाता था। वर्तमान काल के समान चाय, नाश्ता आदि का चलन बिल्कुल नहीं था। यदि कोई विशेष अतिथि या रिश्तेदार आ जाता तो उसके लिये भोजन, आवास आदि व्यवस्था अलग से होती थी एवं उसका समय भी निर्धारित होता था। इस चलन में विशेष उल्लेखनीय तथ्य ये है कि गायक/वादक आदि सभी के साथ एक विशेष प्रकार की दूरी स्वतः निर्धारित हो जाती थी जो आवश्यक भी थी। श्रीमती सुमित्रा देवी ने इस प्रकार के वातावरण में बालक गंगाप्रसाद की परवरिश में पूरी सावधानी एवं कठोरता का आजीवन निर्वाह किया।
इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में बालक गंगाप्रसाद की संगीत शिक्षा के लिए योग्य गुरू का चयन करना एक चुनौती थी। सन् 1910-11 के आस-पास ग्वालियर में एक से एक अच्छे ध्रुपद गायक पं. नारायण शास्त्री, पं. वामन बोआ, पं. लाला बोआ, पं. गणपतराव गवई आदि थे जो नेपथ्य में चले गये थे। ख्याल गायकों का बोल-बाला था चूंकि सिंधिया परिवार (शासक) ख्याल गायकी पसंद करते थे, इसलिये उस्ताद नत्थन खां उस्ताद पीर बाक्श, उस्ताद हदू खां, उस्ताद हस्सू खां, उस्ताद निसार हुसैन खां आदि ग्वालियर घराने के प्रर्वतक एवं प्रचारक गायकों का बोल-बाला था। अतः उनमें से किसी एक का चयन करना कठिन था। फिर भी श्रीमती सुमित्रा देवी ने अपनी सूझ-बूझ के आधार पर श्री कृष्णराव गोपालराव दाते का चयन अपने मन में कर लिया। चूंकि श्री दाते गुरूजी अच्छा गाते थे। निर्व्यसनी थे एवं छत्री बाजार में रहते थे, जो तारागंज मोहल्ले के पास ही है। इस प्रक्रिया में "पानी पिये छान कै गुरू करै जान कर" यह मुहावरा श्रीमती सुमित्रा देवी पर पूर्णरूपेण उपयुक्त है। अतः श्रीमती सुमित्रा देवी ने श्री दाते गुरूजी से प्रार्थना करके स्वीकृति ले ली एवं बालक गंगा प्रसाद को उनकी शरण में दे दिया।
During His Studies
[edit]बालक गंगा प्रसाद की संगीत शिक्षा का श्री गणेश पखावज वादन से हुआ। पं. कालका प्रसाद अपने समय के अच्छे ध्रुपद गायक एवं पखावजी थे। उन्होंने बालक को सर्वप्रथम पखावज वादन की शिक्षा देना आरंभ किया। आपने बालक गंगा प्रसाद को पखावज वादन में परिपक्व कर दिया। साथ ही ध्रुपद-धमार की संगत का अभ्यास भी कराया। पं. कालका प्रसाद को बालक गंगा प्रसाद के चाचा थे। पं. कालका प्रसाद का निधन सन् 1910-11 के आसपास-श्रीमंत माधव राव सिंधिया के शासन काल में हुआ था।
इसके बाद बालक गंगा प्रसाद की संगीत शिक्षा का श्री गणेश श्री गोपालराव दाते के कुशल निरीक्षण में आरंभ हुआ। उस समय बालक की आयु (लगभग) 10-11 वर्ष थी। संगीत जगत में श्री कृष्णराव दाते को गुरूजी के नाम से जाना जाता था। चूंकि श्री दाते गुरूजी अच्छे गायक थे, र्निव्यसनी थे एवं पास में ही छत्री-बाजार में रहते थे। श्री दाते गुरूजी मालगुजार थे। उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी अर्थात् विद्या दान करना ही मुख्य लक्ष्य था। आरंभ में श्रीमती सुमित्रा देवी बालक को स्वयं गुरूजी के घर पहुँचाती थी एवं वापस लेकर घर आती थीं।
जब तक गुरूजी संगीत शिक्षा देते वे बाहर बैठी रहती थीं। यह क्रम कुछ दिनों तक चला, बाद में श्री दाते गुरूजी ने बालक गंगाप्रसाद को अपने घर पर रहने की स्वीकृति दे दी। महीने में एक दिन घर जाने की अनुमति मिलती थी। साधारणतः उस समय संगीत शिक्षा से धनोपार्जन करने की प्रथा नहीं थी।
संगीत शिक्षा के बदले शिष्य की निष्ठा की परख ही सर्वोपरि थी। शिक्षा के माध्यम से गुरू शिष्य में आपसी समन्वय इतना घनिष्ठ हो जाता था कि गुरू के मन की बात शिष्य स्वतः पहचान लेता था एवं तद्नुसार व्यवहार करता था फिर भी ये पंक्तियाँ उल्लेखनीय है :-
"गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट, अन्तर हाथ सहाय दै, बाहर मारे चोट ।।"
गुरू अपने शिष्य को डांटता, फटकारता था, आवश्यकता पड़ने पर प्रताड़ित भी करता था। इसके पीछे उनका यही लक्ष्य होता था कि शिष्य संगीत शिक्षा में कमजोर न रहे, पूर्णरूपेण परिपक्व हो जाये। श्री दाते गुरूजी की शिक्षा ने बालक गंगा प्रसाद को इतना परिपक्व कर दिया कि इसका आभास बालक गंगा प्रसाद एवं श्रीमती सुमित्रा देवी को भी नहीं था। अर्थात् बालक गंगा प्रसाद को किसी अन्य संगीतज्ञ से संगीत शिक्षा लेने की इच्छा मन में कभी नहीं आई।
वे आजीवन श्री दाते गुरूजी का नाम आदर पूर्वक लेते थे। विशेष उल्लेखनीय तथ्य श्री दाते गुरूजी का एकमात्र चित्र पं. गंगाप्रसाद के पास ही था जिसे उन्होंने आजीवन सहेज कर रखा। यह चित्र आज भी परिवार के पास सुरक्षित है। श्री दाते गुरूजी के जीवन परिचय के साथ शोधार्थी वह चित्र भी शोध प्रबंध में प्रस्तुत करेगी। पं. गंगा प्रसाद का कहना था "गुरू और पिता एक होते है"। इसके विपरीत ग्वालियर में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम आकार ले रहा था। पं. विष्णु नारायण भातखंडे जी का नाम संगीत जगत में सूर्य के समान उभर कर समाने आया। पं. भातखंडे जी उस समय के बी.ए., एलएल.बी. उत्तीर्ण एवं एक वकील की हैसियत से न्यायालय में वकालत भी करते थे। उन्हे बाल्यकाल से ही संगीत से विशेष प्रेम एवं संगीत सीखने की ललक थी। परन्तु संगीत शिक्षा के लिए "अग्रे अग्रे मक्षिका पादः" अर्थात् परिवार के सदस्यों ने ही विरोध आरंभ कर दिया। जैसे-तैसे घर वालों की नजर बचाकर (छिपकर) संगीत सीखने का प्रयास करते रहते थे। थोड़ी बहुत सफलता भी मिली।
परन्तु संगीत शिक्षा प्राप्त करने में जो कठिनाई आई, उससे पं. भातखंडे जी बहुत दुखी हुए। उस समय का संगीत एक विशेष वर्ग के हाथों में था। वह वर्ग विशेष संगीत शिक्षा से अधिक बेगार कराता था। पं. भातखंडे जी ने इस व्यवस्था को समाप्त करने का संकल्प अपने मन में ले लिया था। इस संकल्प की पूर्ति हेतु प्रथमतः अपनी आर्थिक व्यवस्था सृदृढ़ की। उसके बाद संगीत में आमूल चूल परिर्वतन की योजना तैयार की। सर्वप्रथम पं. भातखंडे जी ने संगीत को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सरलतम स्वरलिपी का निर्माण किया। संगीत के विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन कर संगीत जगत में व्याप्त विसंगतियों को समाप्त कर एक निर्धारित मापदंड (थाट राग पद्धति) स्थापित किया।
उस समय के प्रायोगिक संगीत में उस्तादों और पंडितो की अपनी शैली प्रचार में थी। जैसे छैः राग छत्तीस रागनियाँ, उनमें भी चार मत प्रचार में थे। शास्त्रीय संगीत में अपने-अपने तर्क एवं नियम थे जिनमें दुविधा की स्थिति बनी रहती थी। सम्पूर्ण संगीत राजदरबारों तक सीमित था, उसमें भी कई प्रकार के व्यवधान उत्पन्न होत रहते थे। इसके साथ ही उस्ताद / गुणीजन अपनी इच्छानुसार संगीत शिक्षा देते थे, जिसमें छात्र का हर प्रकार से दोहन ही होता था। पं. भातखंडे ने सुव्यवस्थित संगीत शिक्षा जन साधारण को सुलभ कराने लिए योजना तैयार की थी। अतः संगीत में प्रचलित विभिन्न बंदिशों (ध्रुपद, धमार, ख्याल, तराना, त्रिवट, चतुरंग आदि) का संग्रह किया। सभी बंदिशों को स्वर लिपि के माध्यम से सुरक्षित किया। इसके साथ ही प्रथम वर्ष से लेकर पांचवी कक्षा तक का पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया। पं. विष्णु नारायण भातखंडे जी की ख्याति लगभग सभी राज्यों में पहुँच चुकी थी। ग्वालियर के महाराजा श्रीमंत माधवराव सिंधिया ने पं. भातखंडे जी को अपनी मुंबई कोठी पर आमंत्रित कर संगीत विषय पर वार्तालाप हुई। पं. भातखंडे जी की संगीत योजना से श्रीमंत माधवराव सिंधिया प्रभावित हुए एवं ग्वालियर में गायन शाला (संगीत विद्यालय) स्थापित करने की योजना बनाई। इसे क्रियान्वित करने के लिए सात संगीतज्ञों का चयन किया गया। उनको छात्रवृत्ति (Scholarship) देकर संगीतशास्त्र एवं स्वरलिपि पद्धति सीखने के लिए पं. भातखंडे जी के पास मुंबई भेजा गया।
His Contribution in Music
[edit]पंडित गंगाप्रसाद पाठक ने अपने जीवन के आरंभिक काल में ग्वालियर के धुरंदर ध्रुपद गायकों (पं. लाला बोआ पं., तात्या बोआ, पं. गणपत राव गवई, पं. कालका प्रसाद आदि), ख्याल गायकों में (देवजी बोआ, शंकर पंडित, एकनाथ पंडित आदि के अतिरिक्त ठुमरी टप्पा गायकों आदि सभी का गायन सुना एवं आत्मसात कर अपनी गायकी को चौमुखी बनाया। अपनी अलग पहचान बनाकर ग्वालियर घराने में विशेष स्थान प्राप्त किया। आपने अपने जीवन में शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त अन्य किसी भी कला से समाझौता नहीं किया। यद्यपि अभिनय, सुगम-गायन, संगीत-निर्देशन आदि कार्य जो आजीविका के लिए अनिवार्य थे वो कुशलता से किये। परन्तु शास्त्रीय गायन का लक्ष्य सर्वोपरि था। किसी राजा रजबाड़े या शासकीय, अशासकीय संस्था में नौकरी नहीं की। आजीवन स्वच्छंद-गायक के रूप में ख्याति अर्जित करते रहे। शोधार्थी अपने अध्ययन से कहना चाहती है कि तत्कालीन सभी संगीत सम्मेलनों में उन्हें सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाता था। वे अपने शास्त्रीय गायन से ग्वालियर घराने की प्रतिष्ठा स्थापित करते थे। इसका दूसरा ज्वलंत उदाहरण यही है कि मुंबई की चमकीली फिल्मी दुनिया भी उन्हें बांध न सकी, जबकि विभिन्न कंपनियों की फिल्मों में आपने संगीत निर्देशन अभिनय एवं गायन प्रस्तुत किया। परन्तु शास्त्रीय संगीत का कोई पर्याय उन्हें प्रभावित न कर सका। अपने फिल्मी सफर में आपने कई नवोदित एवं स्थापित कलाकरों को भी प्रोत्साहन देकर उपकृत किया जिसका उल्लेख भी उन्होंने कभी नहीं किया।
As a Singer Of Indian classical music
[edit]गंगाप्रसाद पाठक गायक के रूप में सर्वप्रथम 1923-24 के जलसा (मेहफिल) में सार्वजनिक रूप से सामने आये। यह जलसा ग्वालियर के टाउन हॉल (रीगन टॉकीज) में आयोजित किया गया था। संगीत विद्यालय की स्थापना (1918) के बाद पांचवे वर्ष में जो बारह छात्र उत्तीर्ण हुए थे उनमें से दो छात्रों का चयन किया गया। उनके नाम गंगाप्रसाद, एवं नारायण लक्ष्मण गुणे थे। अतः दोनों छात्रों का गायन सार्वजनिक भवन (Town Hall) में आमंत्रित गणमान्य नागरिकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया। गंगाप्रसाद एवं नारायण लक्ष्मण गुणे का गायन हुआ। गायन अभूतपूर्व रहा। दोनों ने निर्भीकता एवं विश्वास के साथ गाया। सभी ने मुक्त कण्ठ से गायन की प्रशंसा की। इसके पश्चात् पं. गंगाप्रसाद पाठक आजीविका हेतु कानपुर चले गये। पं. गंगाप्रसाद पाठक नये-नये कानपुर पहुँचे थे परन्तु गायन में परिपक्व थे। कई मेहफिलें हुई। उनके गायन की ख्याति कुछ ही दिनों में चरम पर पहुँच गई। संगीत जगत मे उन्हें गंगाप्रसाद गवैया के नाम से ख्याति मिलने लगी। कानपुर में उस समय रामलीला के विभिन्न प्रसंगों का आयोजन सामान्य रूप से होता रहता था। इसके अतिरिक्त अन्य विविध नाटकों के आयोजन भी होते थे। कानपुर में ऐसी विभिन्न नाटक मंडलियाँ थी जो समय समय पर धार्मिक एवं सामाजिक नाटकों का मंचन करती थी।
इन्हीं कम्पनियों में अच्छे-अच्छे गायक वादक एवं अभिनेता कार्य करते थे एवं अपनी आजीविका चलाते थे। 1925-26 में ही कानपुर में न्यू एल्फ्रेड के डायरेक्टर श्री राधेश्याम कथावाचक से उनकी भेंट हुई। गंगा प्रसाद पाठक के गायन की ख्याति एवं गायन से प्रभावित होकर श्री राधेश्याम कथावाचक ने अपनी कम्पनी में संगीत निर्देशक का पद सौंप दिया। साथ ही कृष्ण की भूमिका में अभिनय का दायित्व भी दे दिया। अतः कानपुर में आजीविका एवं गायन दोनों की व्यवस्था सूचारू रूप से चलने लगी। आपके गायन की प्रतिष्ठा कुछ ही दिनों में चरम पर पहुँच गई थी। शोधार्थी ने अपने अध्ययन में पाया कि पं. गंगाप्रसाद पाठक आजीवन शास्त्रीय संगीत में गायक के रूप में प्रसिद्ध रहे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के संदर्भ में कभी कोई समझौता नहीं किया। यद्यपि उन्होंने अभिनय भी किया, नाटकों एवं फिल्मों में संगीत निर्देशन किया, परन्तु शास्त्रीय गायन में कोई कमी नहीं आने दी।
उनका शास्त्रीय संगीत का रियाज बदस्तूर चार/पांच घंटे प्रतिदिन करते थे। संगीत निर्देशन में गीतों की धुन शास्त्रीय रागों में ही बनाई। धुनों में रागों की शुद्धता का विशेष ध्यान रखते थे। विशेष उल्लेखनीय तथ्य ये है कि वे व्यवसायिक रूप से शास्त्रीय गायन के माध्यम से आजीविका चलाते थे। उन्होंने अपनी गायन शैली इतनी सुदृढ़, सुरीली, एवं बहुमुखी बनाई कि तत्कालीन संगीत मेहफिलें उनके गायन के बिना अधूरी मानी जाती थी। अतः आयोजकों का आमंत्रण अनिवार्य रूप से उन्हें मिलता रहता था। उनके गायन की ख्याति इस तथ्य को प्रमाणित करती है।सन् 1937 में ही आकाशवाणी में सर्वप्रथम उनके गायन का प्रसारण हुआ। जिसमें आपने राग श्याम कल्याण में बिलंवित ख्याल "जीवे मेरा लाल" के बाद राग काफी में ठुमरी प्रस्तुत की। चूंकि उस समय आकाशवाणी में संगीत का वर्गीकरण (शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, सुगम संगीत) नहीं हुआ था। इसलिए लाईट क्लासीकल शीर्षक का उल्लेख किया गया था। जिसमें "गंगाप्रसाद पाठक ग्वालियर" उल्लेख है।उपरोक्त आकाशवाणी कार्यक्रम इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि पं. गंगाप्रसाद पाठक के गायन का आकाशवाणी से प्रसारण 1937 में आरंभ हो गया था।
शोधार्थी यह स्पष्ट करना चाहती है कि व्यक्ति के व्यवसाय से व्यक्ति की पहचान होती है जैसे शिक्षक (शिक्षा देने वाला), संगीत-शिक्षक (संगीत की शिक्षा देने वाला), डॉक्टर (बीमारी का इलाज करने वाला), आर्किटेक्ट (भवन निर्माण करने वाला) आदि। उसी प्रकार पं. गंगाप्रसाद पाठक ने अपने आपको शास्त्रीय गायक के रूप में स्थापित किया था। इस संदर्भ में कई जगह गंगाप्रसाद पाठक गवैया या गायक पं. गंगाप्रसाद पाठक आदि विशेषण उपयोग किया गया है जिससे यह प्रमाणित होता है, कि वे पूर्णकालिक गायक थे। ग्वालियर के गुणीजन और उनके सहपाठी उन्हें गवैया ही कहते थे और स्वयं को शिक्षक चूंकि वे संगीत विद्यालय में संगीत शिक्षा देते एवं वेतन पाते थे। ग्वालियर में ही उनके घनिष्ठ मित्र उन्हें "साड़-गवैया" कहते थे। चूंकि वे स्वच्छंद थे, किसी के नौकर नहीं थे उनका गायन चौमुखा था जिसमें ध्रुपद धमार, ख्याल, ठुमरी, टप्पा, तराना, त्रिवट आदि सब कुछ शामिल था। अतः उनके गायन से समाज के प्रत्येक वर्ग को आनंद की अनुभूति होती थी।
इसके विपरीत संगीत-शिक्षक पाठ्यक्रम के अधीन रहता है। उसे अपने स्तर के विपरीत संगीत-शिक्षा देने का बंधन होता है। पाठ्यक्रम के अनुसार उसे संगीत शिक्षा देना पड़ती थी। अतः पं. गंगाप्रसाद पाठक मात्र गायक ही नहीं वरन चौमुखे गायक थे। शोधार्थी यहाँ चौमुखे गायक की व्याख्या करना भी आवश्यक समझती है। अनेक गुणीजनों से उपरोक्त शब्द के संदर्भ में वार्ता की। अन्त में पं. सज्जनलाल ब्रह्मभट्ट 'रसरंग' ने इसका विशद वर्णन कर समझाया जो दिया जा रहा है -
1. जो गायक शस्त्रोक्त नियमों का भली-भांति निर्वहन करें।
2. परम्परागत बंदिशों की अदायगी यथावत् (जैसी सीखी वैसी) ही रखे।
3. लय ताल एवं उपज अंग में दक्ष हो।
4. श्रोताओं के मनोरंजन हेतु उपशास्त्रीय संगीत (ठुमरी, दादरा, भजन आदि) गायन में दक्ष हो।
ऐसे गायक को चौमुखा गायक कहते है। पं. गंगाप्रसाद पाठक आत्मविश्वास के धनी एवं निर्भीक गायक थे। बाल्यावस्था में तबला-पखावज की शिक्षा का अनुभव होने से उनके गायन में निर्भीकता थी। आप अपने समय के निर्भीक चौमुखे गायक थे। अच्छे-अच्छे संगतकार (तबला वादक) आपके साथ संगत करने के लिये लालायित रहते थे। शोधार्थी उनके गायन की मेहफिलों में से चयन कर उनका वर्णन शोध प्रबंध में प्रस्तुत कर रही है। संगीत की मेहफिलें जो उन्हें गायक के रूप में स्थापित करती है :-
1. लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) 1931 की मेहफिल के आमंत्रण-पत्र की छायाप्रति एवं वर्णन।
2. सन् 1930 के हरिदास संगीत सम्मेलन जालंधर की प्रस्तुति।
3. अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर की अविस्मरणीय मेहफिल (कॉन्फेस)
4. उच्च न्यायालय के न्यायधीश रायबहादुर पं. देवीचंद ने अपनी कोठी चांद निवास में आपके गायन का कार्यक्रम रखा।
5. सुर सिंगार-संसद मुंबई की स्थापना में आपका गायन।
6. आकाशवाणी नई दिल्ली से लगभग 3/4 बार आपका राष्ट्रीय कार्यक्रम (National Programme) प्रसारित हुआ।
7. श्रीमंत माधव राव सिंधिया के जन्मोत्सव पर आपका गायन ग्वालियर में रखा गया।
8. ग्वालियर के तानसेन समारोह में आपका गायन कई बार रखा गया।
9. भातखंडे शताब्दी समारोह ग्वालियर में आपका अभूतपूर्व गायन हुआ जिसका उल्लेख श्री अशोक नादान ने अपनी कविता में किया है।
उपरोक्त सभी कार्यक्रमों का (कुछ अंश छोड़कर) आयोजन वर्तमान में भी बदस्तूर होता है। शोधार्थी यह कहना चाहती है कि इस प्रकार के संगीतजीवी गायक बहुत कम होते है, जिन्होंने गायक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की एवं अपनी ग्वालियर शैली का नाम रोशन किया। आकाशवाणी के राष्ट्रीय कार्यक्रमों की श्रृंखला में पं. गंगाप्रसाद पाठक के तीन कार्यक्रम हुए-
1. 14 नवंबर 1953
2. 28 मार्च शनिवार, 1970 आकाशवाणी पत्रिका 1970
3. 24 मई 1974 आकाशवाणी पत्रिका, प्रसारित 1 जून शनिवार, 1974.